पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

 

पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय
पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

पाठ 4 - पुनरावृति नोट्स


CBSE कक्षा 11 समाजशास्त्र
पाठ-4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय
पुनरावृत्ति नोट्स


स्मरणीय बिन्दु-

  • समाजशास्त्र के अनुभव में तीन क्रांतियों का महत्वपूर्ण हाथ है :
    1. फ्रांसिसी क्रांति, तथा
    2. औद्योगिक क्रांति
    3. ज्ञानोदय एवं विवेक का युग

ज्ञानोदय :

  • पश्चिमि यूरोप में  17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध व 18वी शताब्दी के संसार के बारे में सोचनें - विचारने के नवीन व मौलिक दृष्टिकोण का जन्म हुआ। ज्ञानोदय या प्रबोधन के नाम से जाने गए इस नए दर्शन नक जहाँ एक ओर मनुष्य को संपूर्ण ब्राह्मांड के केन्द्र बिन्दु के रूप में स्थापित किया, वहाँ दूसरी ओर विवेक को मनुष्य को मनुष्य की मुख्य विशिष्टता का दर्जा दिया।
  • इसका अभिप्राय यह है कि ज्ञानोदय को एक संभावना से वास्तविक यथार्थ में बदलने में उन वैचारेिं प्रवृत्तियों का हाथ है जिन्हें आज 'धर्मनिरपेक्षण' वैज्ञानिक सोच 'व' 'मानवतावादी सोच' की संज्ञा देते हैं।
  • इसे मानव व्यक्ति ज्ञान का पात्र की उपाधि भी दी गई, तथा केवल उन्हीं व्यक्तियों को पूर्ण रूप से मनुष्य माना गया जो विवेकपूर्ण ढंग से सोच - विचार कर सकते हो जो इस काबिल नहीं समझे गए उन्हें आदिमानव या बार्बर मानव कहा गया।
  • फ्रांसीसी क्रांति (1789) ने व्यक्ति तथा राष्ट्र-राज्य के स्तर पर राजनितिक संप्रभुता के आगमन की घोषणा की।
    • मानवाधिकार के घोषणापत्र के द्वारा सभी नागरीकों की समानता पर जोर दिया और जन्मजात विशेषाधिकारों की वैधता पर प्रश्न उठाता है।
    • इसने व्यक्ति को धार्मिक अत्याचारी से मुक्त किया, जो फ्रांस की क्रांति के पहले वहाँ अपना वर्चस्व बनाए हुए था।
    • फ्रांसीसी क्रान्ति के सिद्धान्त-स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व-आधुनिक राज्य के नए नारे बने।
  • विवेकपूर्ण एवं आलोचनात्मक ढंग से सोचने की क्षमता ने मानव को ज्ञान का उत्पादक एवं उपभोक्ता दोनों बना दिया। उसे 'ज्ञान का पात्र' की उपाधि दी गई।
  • विवेकपूर्ण ढंग से सोच-विचार करने वाले व्यक्तियों को पूर्ण रूप से मनुष्य माना गया।
  • प्रकृति, धर्म-संप्रदाय तथा देवी-देवताओं की आवश्यकता को कम करना जरूरी हो गया था जिसके द्वारा युक्ति संगत को मानव जगत की पारिभाषिक विशिष्टता का स्थान प्राप्त हो सके।
  • ज्ञानोदय को वास्तविक यथार्थ में बदलने हेतु उन वैचारिक प्रवृत्तियों का हाथ है जिन्हें हम आज धर्मनिरपेक्षता, वैज्ञानिक सोच और मानवतावादी सोच की संज्ञा प्रदान करते हैं।

औद्योगिक क्रांति :

  • उद्योगों की आधार औद्योगिक क्रांति के माध्यम से किया गया,जिसका आरम्भ में 18वीं शताब्दी के उत्रार्द्ध तथा 19वीं शताब्दी के शुरू में हुई।
  • ब्रिटेन में 18वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में तथा 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुई।
  • इसके दो प्रमुख पहलू थे :
    • पहला, विज्ञान व तकनीकी का औघोगिक उत्पादन।
    • दूसरा औघोगिक क्रांति ने श्रम एवं बाजारद को नए देश से व बड़े पैमाने पर संगठित करने के उपाय विकसित किए, जैसे कि पहले कभी नहीं गया।

औद्योगिक क्रान्ति के कारण सामाजिक परिवर्तन :

  • शहरी इलाको में स्थित उद्योगों को चलाने हेतु मजदूरों की माँग को उन विस्थापित लोगों ने पूरा किया जो ग्रामीण इलाकों को छोड़, श्रम की तलाश में शहर आकर बस गए थे।
  • कम वेतन मिलने की वजह से अपनी जीविका चलाने हेतु पुरूषों और स्त्रियों को ही नहीं  यधपि बच्चों को भी लंबे समय तक खतरनाक परिस्थितियों में काम करना पड़ता था।
  •  वर्तमान के उद्योगों द्वारा शहरों को देहात पर हावी होने में सहायता की।
  • आधुनिक शासन पद्धतियों के अंतर्गत राजतंत्र को नए तरह की जानकारी व ज्ञान की जरूरत का भाव हुआ।
  • उत्पादन व्यवस्था में बदलाव के कारण सामाजिक जीवन में भी बदलाव हुए। शहरी इलाकों में स्थापित उद्योगों को चलाने के लिए मज़दूरों की माँग की उन लोगों ने पूरा किया जो ग्रामीण इलाकों को छोड़ काम की तलाश में शहर आयें थे।
  • फैक्ट्री में कम तनख्वाह मिलने की वजह से अपनी जीविका चलाने हेतु पुरुषों और स्त्रियों तथा यहाँ तक बच्चों को भी लंबे समय तक खतरनाक परिस्थितियों में काम करना पड़ता था।
  • अलगाव की स्थिति पूँजीवादी समाज की विशिष्टता है जो कई-कई स्तरों पर कार्य करती हैं-
    1. प्रथम, 2. द्वितीय और 3. तृतीय,
  • सर्वहारा वर्ग पूँजीवादी समाज में परिवर्तन लाएगा। वे इसके शोषण के शिकार हैं। वे एकत्र होकर क्रांतिकारी परिवर्तन के द्वारा इसे जड़ से समाप्त कर स्वतंत्रता तथा समानता पर आधारित समाजवादी समाज की स्थापना करेंगे।
  • उत्पादक शक्तियों का संबंध उत्पादन के उन सभी साधनों से है: जैसे-मज़दूर, तकनीक, भूमि, ऊर्जा के विभिन्न स्रोत (जैसे-कोयला, पेट्रोलियम, बिजली इत्यादि)।
  • उत्पादन संबंधों का संदर्भ प्रत्येक तरह के आर्थिक संबंधों तथा मज़दूर संगठन के स्वरूपों से हैं, जो उत्पादन प्रक्रिया में सम्मिलित होते हैं।
  • उत्पादन संपत्ति से भी संबंधित होते हैं। इसकी वजह यह हैं कि ये स्वामित्व या उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण से संबंधित होते हैं।

फ्रांसीसी क्रांति

  • व्यक्ति एवं राष्ट्र-राज्य के स्तर पर फ्रांसिसी-क्रांति (1789) ने राजनीतिक संप्रभुता के आगमन की घोषणा की।
  • मानवाधिकार के घोषणापत्र के द्वारा सभी नागरिकों की समानता पर जोर दिया तथा जन्मजात विशेषाधिकारों पर प्रश्न उठाया।
  • किसान अधिकतर 'सर्फ' (बंधक मज़दूर या कृषिदास) थे। उन्हें कुलीन वर्ग के जागीरदारों के चंगुल से आज़ाद कर दिया गया।
  •  ज़्यादातर करों को समाप्त कर दिया गया, जो किसान जागीरदारों और चर्च की दिया करते थे।
  • राज्य हेतु व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता का सम्मान करना जरूरी हो गया। राजकीय कानून किसी व्यक्ति के निजी जीवन में दखल नहीं दे सकता था।
  • राज्य के माध्यम से संचालित क्षेत्र तथा सार्वजनिक घरबार द्वारा संचालित क्षेत्र को पृथक कर दिया गया।
  • धर्म और परिवार को व्यक्तिगत क्षेत्र के अनुकूल माना गया जबकि शिक्षा विशेषकर स्कूली-शिक्षा को सार्वजनिक क्षेत्र के लायक माना गया।
  • राष्ट्र-राज्य को प्रभुत्वसंपन्न हस्ती के साथ केंद्रीकृत शासन तंत्र के रूप में नए सिरे से परिभाषित किया गया।
  • फ्रांसीसी क्रांति के सिद्धांत; जैसे-स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व आधुनिक राज्य के नए नारे बन गए।

कार्ल मार्क्स :

  • मार्क्स के अंतर्गत, कि समाज के द्वारा अनेक चरणों में उन्नत की है। ये चरण हैं- आदिम साम्यवाद-दासता-सामुतवाद व्यवस्था-पूंजीवाद-समाजवाद उनका मानना था कि बहुत शीघ्र ही इसका स्थान समाजवाद ले लेना।
  • पूँजीवाद समाज में मनुष्य से अपने आपको बहुत पृथक पाता है।
  • लेकिन फिर भी मार्क्स के अंतर्गत कि पूंजीवाद, मानव इतिहास में एक आवश्यक तथा प्रगतिशील चरण रहा क्योंकि इसने ऐसा वातावरण तैयार किया जो भविष्य में तथा प्रगतिशील चरण क्योंकि इसने ऐसा वातावरण तैयार किया जो समान अधिकारों की वकालत करने तथा शोषण तथा गरीबी को समाप्त करने के लिए जरूरत है।
  • अर्थव्यवस्था के बारे में मार्क्स का मानना था, कि यह उत्पादन के तरीकों पर आधारित होती है। उत्पादन शक्तियों का अभिप्राय यह है कि उत्पादन के उन सभी साधनों से है, जैसे - भूमि, मजदूर, तकनीक, ऊर्जा के विभिन्न साधन।
  • मार्क्स ने आर्थिक संरचनाओं तथा प्रक्रियाओं पर अणिक बना दिया क्योंकि उनका  मानना था कि मानव इतिहास में ये प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था की नींव होते है।
  • आधुनिक शासन व्यवस्था के अनुसार राजतंत्र को स्वास्थ्य, सफाई व्यवस्था, आपराधिक गतिविधियों एवं सर्वांगीण विकास की ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए शासन तंत्र को नए प्रकार की ज्ञान की जरूरत का भाव हुआ। कार्ल मार्क्स जर्मनी के निवासी थे।लेकिन देश से निकाले डाई जाने की वजह से उन्होंने अपना ज़्यादातर बौद्धिक उत्पादक समय ब्रिटेन में बिताया।
  • मार्क्स ने तर्क दिया कि मनुष्य समाज ने विभिन्न चरणों में उन्नति की है। आदिम साम्यवाद, दासता, सामंतवादी व्यवस्था और पूँजीवादी व्यवस्था इसके विभिन्न चरण थे।
  • पूँजीवादी पद्धति की कार्यविधि की समझने के लिए मार्क्स ने इसके राजनीतिक, सामाजिक और विशेष रूप से इसके आर्थिक स्वरूप का गहन अध्ययन किया।
  • मार्क्स इस तथ्य का पक्षधर है कि व्यक्ति की सोच एवं विश्वास ने उसी अर्थव्यवस्था से जन्म लिया है जिसका वे हिस्सा हैं।
  • मार्क्स ने आर्थिक संरचनाओं और प्रक्रियाओं पर ज़्यादा जोर दिया। मार्क्स का मानना था कि मानव इतिहास में ये सभी सामाजिक व्यवस्था की नींव रही है।
  • मार्क्स के लिए व्यक्ति को सामाजिक समूहों में वर्गीकृत करने का सही माध्यम : धर्म, भाषा, राष्ट्रीयता अपना समाज पहचान के बजाए उत्पादन प्रक्रिया था।

वर्ग संघर्ष

  • मार्क्स वर्ग संघर्ष के प्रतिपादक थे। उनका विश्वास था कि वर्ग संघर्ष सामाजिक परिवर्तन लाने वाली मुख्य ताकत होती है।
  • मार्क्स और एंजिल ने अपने विचार स्पष्ट और संक्षेप में रखें। The Communist Manifesto की प्रारंभिक पंक्तियाँ घोषणा करती हैं-"प्रत्येक विद्यमान समाज का इतिहास, वर्ग संघर्ष का इतिहास है।"
  • जब उत्पादन के साधनों में बदलाव आता है तब अनेक वगों में संघर्ष बढ़ जाता है। मार्क्स का विचार था कि वर्ग संघर्ष सामाजिक बदलाव लाने वाली मुख्य ताकत होती है।
  • पूँजीवादी व्यवस्था में उत्पादन के सभी साधनों पर पूँजीवादी वर्ग का अधिकार होता है श्रमिक वर्ग का उत्पादन के सभी साधनों पर से अधिकार खत्म हो गया।
  • संघर्ष हेतु यह जरूरत है कि अपने वर्ग हित तथा हित पहचान के प्रति जागरूक हों।
  • इस तरह की 'वर्ग चेतना’ के विकसित होने के उपरांत शासक वर्ग को उखाड़ फेंका जाता है जो पहले से शासित अथवा अधीनस्थ वर्ग होता है इसे ही क्रांति कहते हैं।
  • जैसे-जैसे उत्पादन के साधन अर्थात उत्पादन तकनीकी तथा उत्पादन के सामाजिक संबंधों में बदलाव होता हैं उसी प्रकार से अनेक वर्गों में संघर्ष बढ़ता चला जाता है तथा क्रांति जिसका परिणाम होता है।
  • उत्पादन के पूँजीवादी साधन सर्वहारा वर्ग का निर्माण करते हैं। वस्तुतः ये नवीन संपत्तिविहीन वर्ग होते हैं। इसका निर्माण सामंतवादी कृषक व्यवस्था के विनाश के कारण हुआ है।
  • सर्फ तथा छोटे-छोटे कृषकों को भूमि एवं आजीविका के पूर्ववर्ती स्रोत से बाहर निकाल दिया।
  • एक नवीन सामाजिक वर्ग का निर्माण हुआ जो संपत्तिविहीन था एवं उन्हें अपनी जीविका हेतु मजबूरी में काम करना पड़ता था। उत्पादन प्रक्रिया के अनुसार साझे रूप से कार्य करने की वजह से मज़दूरों ने एक वर्ग बनाया।
  • श्रमिक वर्ग का उत्पादन के सभी साधनों पर से अधिकार समाप्त हो गया। इस प्रकार पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत मज़दूरों के पास जीवित रहने के लिए अपने श्रम को बेचने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं था। इसका कारण यह था कि उनके पास और कुछ बचा ही नहीं था।
  • यहाँ तक कि जब दो वर्ग सिद्धांततः एक दूसरे के विरोधी भी हैं, तब वे स्वतः संघर्ष में नहीं पड़ते हैं। संघर्ष होने हेतु यह जरूरी है कि वे अपने वर्गहित और पहचान के प्रति जागरूक रहें। तदुपरांत वे अपने विरोधी के हितों एवं पहचान के प्रति भी सजग रहें।
  • 'वर्ग चेतना' (Class consciousness) का विकास राजनीतिक गोलबंदी के द्वारा होता है जिसके तहतू वर्ग संघर्ष होता है। इस तरह के संघर्ष द्वारा प्रभावशाली अर्थात शासक वर्ग को पहले सें शोषित या अधीनस्थ वर्ग द्वारा उखाड़ फेंका जाता है। इसे ही क्रांति की संज्ञा दी जाती है।
  • मार्क्सवादी सिद्धांत के अनुसार आर्थिक प्रक्रियाओं ने विरोधियों को जन्म दिया जो आने वाले समय में वर्ग संघर्ष में परिणित हो गया।
  • आर्थिक प्रक्रियाएँ स्वतः क्रांति को नेतृत्व नहीं प्रदान करतीं। इसके विपरीत समाज को पूर्णतः परिवर्तित करने हेतु सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रियाएँ भी जरूरी होती हैं।
  • प्रभुत्वशाली विचारधारा सामान्यतया सफल नहीं होती हैं। उन्हें विरोधी विचारधाराओं या वैकल्पिक वैश्विक दृष्टियों की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

एमिल दुर्खाइम :

  • दूसरे विज्ञानों की तुलना से दुर्खाइम की दृष्टि में समाजशास्त्र की विषय वस्तु-सामाजिक तथ्यों का अध्ययन पृथक था।
  • अन्य प्राकृतिक विज्ञानों की प्रकार इसे भी आधुनिक विषय होना चाहिए था।
  • दुर्खाइम हेतु समाज एक सामाजिक तथ्य था जिसका अस्तित्व नैतिक समुदाय रूप में व्यक्ति के ऊपर था। वे बंधन जो मानव को समूहों के रूप में आपस में बँधते थे, समाज के अस्तित्व के लिए निर्णायक थे।
  • समाज का वर्गीकरण :
    • सावयवी एकता- यह सदस्यों की विषमताओं पर निर्धारित होती है। पारम्परिक निर्भरता सावयवी एकता का सार है इसमें आर्थिक अन्तःनिर्भरता बनी रहती है।
    • यांत्रिक एकता- दुर्खाइम के अंतर्गत,व्यक्तिगत एकरूपता परम्परागत संस्कृतियों की नीव होती है तथा यह कम जनसंख्या वाले समाजो में मिलती हैं, व्यक्तियों की एकता पर  निर्धारित होते है।
  • यांत्रिकी एकतासावयवी एकता
    1. यह आदिम समाज में पाया जाता है।1. यह आधुनिक समाज में पाया जाता है।
    2. यह कम जनसंख्या वाले समाज में पाई जाती है।2. यह वृहत जनसंख्या वाले समय में पाई जाती है।
    3. इसका आधार व्यक्तिगत एक रूपता होती है।3. सामाजिक सम्बंण अधिकतर अव्यैक्तिक होते हैं।
    4. यह विशिष्ट रूप से विभिन्न स्वावलंबित समूह है।4. यह स्वावलंबी न होकर अपने उत्तरजीवी की दूसरी इकाई अथवा समूह पर आश्रित होती है।
    5. यांत्रिकी एकता व्यक्ति तथा समाज के बीच प्रत्यन सम्बन्ध स्थापित करती है।5. सावयवी एकता में समाज के साथ व्यक्ति का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता।
    6. यांत्रिकी एकता सामंताओं पर आधारित होती है।6. सावयवी एकता का आधार श्रम विभाजन है।
    7. यांत्रिकी एकता को हम दमनकारी कानूनों में देख सकते हैं।7. सावयवी एकता वाले समाजों में प्रतिकारी तथा सहकारी कानूनों की प्रमुखता दिखाई देती है।
    8. यांत्रिकी एकता की शक्ति सामूहिक चेतना की शक्ति में होती है।8. सावयवी एकता की शक्ति / उत्पत्ति कार्यात्मक भिन्नता पर आधारित है।
  • समाजशास्त्र का संस्थापक, एमिल दुर्खाइम को माना गया है।पेरिस में, सन् 1913 ईo में वे समाजशास्त्र के पहले आचार्य (प्रोफेसर) थे।
  •  शुरुआत में शिक्षा हेतु दुर्खाइम को रोब्बिनिकल स्कूल भेजा गया, यह एक धार्मिक यहूदी विद्यालय था।
  • 1876 में उन्होंने इकोल नॉरमाल सुपेरियोर (The Ecole Normale Supericure) में प्रवेश लिया। उन्होंने अपने धार्मिक अभिविन्यास से संबंध-विच्छेद कर लिया और स्वयं को नास्तिक घोषित कर दिया।
  • दुर्खाइम हेतु सामाजिकता को आचरण की संहिताओं में पाया जा सकता था। सामूहिक समझौते के अंतर्गत, यह व्यक्तियों पर थोपे जाते थे। यह जीवन के दैनिक क्रियाकलापों में देखे जा सकते थे।
  • नैतिक तथ्य भी, अन्य तथ्यों की तरह घटित होते हैं। उनका निर्माण क्रिया के नियमों के द्वारा हुआ है, जो विशेष गुणों द्वारा पहचाने जाते हैं। उनका अवलोकन करना, वर्णन करना, वर्गीकरण करना तथा विशेष कानूनों द्वारा समझाया जाना संभव है।
  • दुर्खाइम की दृष्टि में, एक नवीन वैज्ञानिक संकाय के रूप में दुर्खाइम समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण की दो मुख्य विशेषताएँ हैं :
    1. समाजशास्त्र की विषय वस्तु अर्थात सामाजिक तथ्यों का अध्ययन अन्य विज्ञानों की तुलना में अलग था:
      • समाजशास्त्र का संबंध स्वयं अनन्य रूप से था जिसे उन्होंने 'उद्गामी स्तर' कहा अर्थात जटिल सामूहिकता का जीवन-स्तर जहाँ सामाजिक घटनाओं का उद्भव हो सकता है। ये परिघटनाएं सामाजिक संस्थाएँ जैसे धर्म या परिवार या सामाजिक मूल्यों जैसे दोस्ती तथा देशभक्ति हैं।
      • व्यक्ति की तुलना में सामाजिक पहचान; जैसे : पार्टियाँ, स्ट्रीट गिरोह, धार्मिक समुदाय, टीम, राजनीतिक, राष्ट्र इत्यादि अन्य वास्तविकताओं के स्तर से संबंधित होते हैं।
      • दुर्खाइम के समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण की दूसरी आवश्यक विशिष्टता अन्य प्राकृतिक विज्ञानों की तरह थी।
    2. इसे आनुभविक विषय होना चाहिए था:
      • दुर्खाइम की सबसे आवश्यक उपलब्धि यह थी कि समाजशास्त्र एक शास्त्र के रूप में अमूर्त तत्वों, जैसे-सामाजिक तथ्यों का विज्ञान हो सकता है, लेकिन यह अवलोकन, आनुभविक इंद्रियानुभवी सत्यापनीय साक्ष्यों पर आधारित हो।
      • सामाजिक तथ्य वस्तुओं की तरह ही होते हैं। वे व्यक्ति हेतु बाह्य होते हैं लेकिन उनके आचरण को नियंत्रित करते हैं। संस्थाएँ जैसेकि कानून, शिक्षा और धर्म सामाजिक तथ्यों का गठन करती हैं।
      • सामाजिक तथ्य सामूहिक प्रतिनिधान होते हैं। इसका उद्भव स्रोत व्यक्तियों के संगठन हैं। वे व्यक्ति विशिष्ट से पृथक सामान्य प्रकृति के होते हैं तथा व्यक्तियों से स्वतंत्र होते हैं। विशिष्टताएँ; जैसे-मान्यताएँ संवेदनाएँ या सामूहिक मान्यताएँ इसके उदाहरण हैं।
  • दुर्खाइम द्वारा- दमनकारी कानून तथा क्षतिपूरक कानून में अंतर-
    दमनकारी कानूनक्षतिपूर्वक कानून
    1. दमनकारी समाज में कानून द्वारा गलत कार्य करने वालों को सजा दी जाती थी जो एक प्रकार से उसके कृत्यों के लिए सामूहिक प्रतिशोध होता था।1. आधुनिक समाज में कानून का मुख्य उद्देश्य अपराधी कृत्यों मे सुधार लाना या उसे ठीक करना है।
    2. आदिम समाज में व्यक्ति पूर्ण रूप से सामूहिकता में लिप्त था।2. आधुनिक समाज में व्यक्ति को स्वायत्त शासन की कुछ छुट है।
    3. आदिम समाज में व्यक्ति तथा समाज मूल्यों व आचरण की मान्यताओं को संजोये रखने के लिए आपस में जुड़े।3. आधुनिक समाज में समान उद्देश्य वाले व्यक्ति स्वैच्छिक रूप से एक दूसरे के करीब आकर संगठन बना लेते हैं।

समाज में श्रम-विभाजन :

  • दुर्खाइम ने अपनी पहली पुस्तक 'डिवीजन ऑफ लंबर इन सोसायटी' (Division of Labour in Society) में आदिम से वर्तमान तर्क के उद्विकास की प्रक्रिया से संबंधित विश्लेषण की अपनी विधि को दर्शाया।
  • दुर्खाइम के अंतर्गत, जहाँ आदिम समाज 'यांत्रिक' एकता पर आधारित था, वहीं आधुनिक समाज 'सावयवी' एकता पर निर्धारित था।
  • यांत्रिक एकता का आधार व्यक्तिगत एकरूपता होता है तथा यह कम जनसंख्या वाले समाजों में मिलती हैं।
  • इसमें विशिष्ट रूप से अनेक स्वावलंबित समूह शामिल हैं। एक विशिष्ट समूह के द्वारा सभी व्यक्ति एक जैसे क्रियाकलापों और प्रकायों में सम्मिलित रहता है।
  •  इसकी वजह यह है कि व्यक्ति और समाज एक दूसरे से जुड़े हुए थे। साथ-ही-साथ यह भी शंका बनी रहती थी कि आचरण की मान्यताओं के भंग होने से समाज बिखर सकता है।
  •  वर्तमान समाज में कानून 'दमनकारी' की तुलना में 'क्षतिपूरक' प्रवृत्ति के होते हैं। इसका अर्थ यह है कि वर्तमान समाज में कानून का औचित्य अपराधी कृत्यों में सुधार लाना और उसे ठीक करना दोनों हैं।
  • विभिन्न संदर्भों में व्यक्तियों की पृथक पहचान होती हैं। यह व्यक्ति को सामुदायिक छत्रछाया से बाहर निकालने, उसके प्रकार्य तथा भूमिका निर्वाह करने में एवं अपनी अलग पहचान बनाने में मदद करती है।
  • 'द डिवीजन ऑफ लेबर इन सोसायटी' दुर्खाइम के चिंतन के महत्त्व को दर्शाता हैं।
  • उनके औचित्य तथा सामाजिक संबंधों के धर्मनिरपेक्ष विश्लेषण पृथक समाजों में विधमान हैं। इसने समाजशास्त्र को समाज का एक नवीन विज्ञान के रूप में स्थापित करने की नींव डाली।

मैक्स वैबर

  • मैक्स वैबर जर्मनी में अपने समय के महान सामाजिक विचारक थे।
  • मैक्स वेबर ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होने विशेष एवं जटिल तरह की 'वास्तुनिष्ठा' की आत की जिसे सामाजिक विज्ञान को अपनाना था।
  • इन्होने कई विषयों पर विचारपूर्वक लिखा है परंतु उनका ध्यान सामाजिक क्रिया, व्याख्यात्मक समाजशास्त्र और शक्ति एवं वर्चस्व के विकास पर केंद्रित था।
  • 'समानुभूति समझ'  हेतु यह जरूरी है कि समाजशास्त्री, बिना स्वयं को निजी मान्यताओं तथा प्रक्रिया प्रभावित हुए, पूर्णरूपेण विषयगत अर्थों तथा सामाजिक कर्ताओं की अभिप्रेरणाओं को इमानदारी पूर्वक विषयगत अर्थों तथा सामाजिक कर्ताओं की अभिप्रेरणाओं को ईमानइारीपूर्वक अभिलिखित करें।
  • वैबर के चिंतन का अन्य विषय आधुनिक समाज में युक्तिसंगत प्रक्रिया तथा विश्व के अनेक धर्मों का इस प्रक्रिया से संबंध था।
  • वैबर के अनुसार, "सामाजिक क्रिया में वे सब मानवीय व्यवहार शामिल हैं जो अर्थपूर्ण हैं। तात्पर्य यह है कि "वे क्रियाएँ जिसके द्वारा कर्ता किसी अर्थ को संबंद्ध करता हो।"
  • 'समानुभूति समझ' हेतु यह जरूरी है कि बिना स्वयं की निजी मान्यताओं तथा प्रक्रिया से प्रभावित हुए, समाजशास्त्री पूर्णरूपेण विषयगत अर्थों और सामाजिक कर्तव्यों की अभिप्रेरणाओं की ईमानदारीपूर्वक अभिलिखित करें।
  • वैबर ने इस तरह की वस्तुनिष्ठता को 'मूल्य तटस्थता' कहा।
  • समाजशास्त्रीयों को इन विषयगत मूल्यों का ब्यौरा तटस्थ होकर करना चाहिए।
  • वैबर ने समाजशास्त्र के अध्ययन के लिए एक अन्य पद्धतिशास्त्रीय उपकरण की बात की है। इसे उन्होंने 'आदर्श प्रारूप' (Ideal Type) कहा है।
  • आदर्श प्रारूप- आदर्श प्रारूप मॉडल की ही तरह एक मानसिक रचना है जिसका उपयोग सम्पूर्ण घटना या समस्त व्यवहार या क्रिया की वास्तविकता को व्यक्त करने के लिए किया गया।
    • करिश्माई सत्ता का उद्भव दैनिक स्रोतों से हुआ।
    • तर्क संगत वैधानिक का उद्भव कानून है।
    • पारंपरिक सत्ता का उद्भव प्रथा तथा प्रचलन हुआ।
  • नौकरशाही संगठन का वह साधन था, जिसका आधार घरेलू दुनिया को सार्वजनिक दुनिया से अलग करना था।
  • कर्मचारियों की जिम्मेदारियों की तुलना में नौकरशाही उनकी शक्तियों को इंगित करती है और इन्हें संपूर्ण शक्ति की प्राप्ति से वंचित रखती हैं।
    नौकरशाही सत्ता की निम्नलिखित विशिष्टताएँ हैं-
    1. लिखित दस्तावेज़ों की विश्वसनीयता।
    2. कार्यालय का प्रबंधन।
    3. कार्यालयी आचरण।
    4. अधिकारियों के प्रकार्य/कार्य।
    5. पदों का सोपानिक क्रम।
  • सामाजिक तथ्य- सामाजिक वास्तविकता का एक पक्ष जो आचरण और मान्यताओं के सामाजिक प्रतिमान से सम्बन्धित है जो व्यक्ति द्वारा बनाया नहीं जाता लेकिन उनके व्यवहार पर दबाव डालता है।
  • आलगाववाद- पूँजीवाद समाज में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य प्रकृति, अन्य मनुष्य, उनके कार्य तथा उत्पाद से स्वयं को दूर महसूस करता है तथा अकेला महसूस करता है, उसे अलगाववाद कहते हैं।

 

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