CBSE कक्षा 11 समाजशास्त्र
पाठ-2 समाजशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली, संकल्पनाएँ एवं उनका उपयोग
पुनरावृत्ति नोट्स
स्मरणीय बिन्दु-
- सामाजिक समूह- इसका अर्थ, व्यक्तियों के किसी भी ऐसे संग्रह से है जो आपस में एक-दूसरे के साथ सामाजिक संबंध रखते हैं। समाजशास्त्र की अपनी संकल्पनाएँ (Concepts), सिद्धांत तथा तथ्य संग्रह की पद्धतियाँ हैं।
- सामाजिक संकल्पनाएँ : यह सामाजिक तथ्यों (social Facts) को परिभाषित करने तथा समझने में सहायता करती हैं। सामाजिक शब्दावली (Sociological Terms) पर चर्चा करना तथा ज़्यादा आवश्यक बन जाता है।
- सामाजिक समूह की विशेषताएँ-
- दो या दो से अधिक व्यक्तियों का होना।
- प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष संबंध।
- सामान्य मूल्य।
- सामान्य स्वार्थ, उद्देश्य या दृष्टिकोण।
- समूह में कार्यों का विभाजन।
- सामाजिक समूह तथा अर्द्ध समूह-
क्र.सं. सामाजिक समूह अर्द्ध समूह 1. सामाजिक समूह के सदस्यों में आपसी सम्बन्ध पाये जाते हैं। एक अर्द्ध समूह एक समुच्चय अथवा समायोजन होता है। जिसमें संरचना अथवा संगठन की कमी होती है। 2. सामाजिक समूह में व्यक्तियों एकत्रता को नहीं बल्कि समूह के सदस्यों में आपसी सम्बन्ध होते हैं। समुच्चय सिर्फ लोगों का जमावड़ा होता है। जो एक समय में एक ही स्थान पर एकत्र होते हैं जिनका आपस में कोई निश्चित सम्बन्ध नहीं होता।
उदाहरण- रेलवे स्टेशन, बस स्टाप इत्यादि।3. एकता को भावना पाई जाती है। इसी कारण व्यक्ति आपस में एक दूसरे के साथ जुड़े होते जैसे- हमदर्दी, प्यार आदि। अर्ध समूह विषम परिस्थितियों में सामाजिक समूह बन सकते हैं। जैसे- समान आयु एवं लिंग आदि। - सामाजिक वर्ग (Social Category) : इसका अभिप्राय समान विशेषताओं के आधार पर लोगों का सांख्यिकीय समूहीकरण अथवा वर्गीकरण से है। उदाहरण, सभी मनुष्य जिनका व्यवसाय समान हो तथा पाँच फीट तथा इससे ज़्यादा ऊँचाई की सभी लड़कियाँ।
- सामाजिक वर्ग के लोग एक-दूसरे के साथ अंतःक्रिया नहीं करते हैं। वे लोग एक-दूसरे के अस्तित्व से भी अपरिचित हो सकते हैं।
- समुच्चय (Aggregates) तथा सामाजिक वर्ग (Social Category) दोनों अर्ध-समूह हैं, जो सदियों बाद कभी-कभी सामाजिक समूह बन जाते हैं। उदाहरण, किसी स्थानीय परिवेश में सभी घरेलू नौकर समय के अंतराल में संघ का निर्माण कर सकते हैं तथा संगठित होकर किसी सामाजिक समूह के रूप में एक-समान परिचय विकसित कर सकते हैं।
- सामाजिक समूह के प्रकार (Types of Social Group)
- समुदाय और समाज
- चार्ल्य कूले के अनुसार प्राथमिक समूह, द्वितीयक समूह।
- संदर्भ समूह।
- अंतःसमूह और बाह्य समूह।
- समवयस्क समूह
- प्राथमिक समूह तथा द्वितीयक समूह की विशेषताएँ-
प्राथमिक समूह द्वितीयक समूह (i) प्राथमिक समूह लोगों का छोटा समूह या सीमित समूह है। (i) द्वितीयक समूह आकार में अपेक्षाकृत बड़े होते हैं। (ii) प्रेम, घनिष्ठता एवं भावनात्मक संबंध इसकी विशेषताएँ हैं। (ii) इसकी विशेषताएँ औपचारिक और अवैयक्तिक संबंधों से जानी जाती हैं। (औपचारिक और अवैयक्तिक संबंध इसकी विशेषताएँ हैं।) (iii) उदाहरण के लिए, परिवार और मित्रों के समूह (Peer Group)। (iii) उदाहरण के लिए, क्लब (Club), आवासी कल्याण (Residents Welfare Association)। - अंतः समूह और बाह्य समूह में अंतर-
अंतःसमूह ब्राह्य समूह 1. 'हम भावना पाई जाती है। 1. 'हम भावना' का अभाव रहता है। 2. संबंधों में निकटता। 2. संबंधों में दूरी। 3. समूह के सदस्यों के प्रति त्याग और सहानुभूति की भावना। 3. त्याग और सहानुभूति का औपचारिक ढोंग। 4. सुख-दुःख की आंतरिक भावना। 4. सुख-दुःख का बाहरी रूप। - संदर्भ समूह तथा समवयस्क समूह-
- संदर्भ समूह (Reference Group)-यह एक ऐसा समूह है, जिससे हम संबंधित नहीं होते हैं, पर हम अपने-आप को उस समूह से अभिनिर्धारित अवश्य करते हैं तथा हम उनकी जीवन-शैली का अनुकरण करने का पर्यटन करते हैं। उदाहरण, विभिन्न भारतीय युवाओं के लिए अमेरिका या बॉलीवुड के कलाकार संदर्भ समूह हैं।
- समवयस्क समूह (Peer Group)-यह इस प्रकार का प्राथमिक समूह हैं, जो सामान्यतः समान आयु के व्यक्तियों के बीच अथवा सामान्य व्यवसाय समूह के लोगों के मध्य बनता है। समवयस्क समूह का व्यक्तियों के जीवन पर ज़्यादा प्रभाव पड़ता है।
- प्रस्थिति और भूमिका (Status And Role)
- प्रस्थिति - प्रस्थिति व्यक्ति को समाज या समूह में प्राप्त स्थान है। हर तरह प्रस्थिति से कुछ अधिकार एवं कर्तव्य जुड़े होते हैं। प्रस्थिति का उदाहरण, डॉक्टर, माँ, शिक्षक आदि।
- प्रस्थिति समुच्चय (Status set)-समाज में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक प्रस्थिति होती हैं एवं प्रत्येक व्यक्ति द्वारा प्राप्त प्रस्थिति की समग्रता की प्रस्थिति समुच्चय कहते हैं। उदाहरण, निमिशा की प्रस्थिति समुच्चय छात्रा, बहन, बेटी, दोस्त, क्लब सदस्य आदि के रूप में हैं।
- प्रतिष्ठा (Prestige)-प्रस्थिति से कुछ निश्चित मात्रा में प्रतिष्ठा तथा सामाजिक मूल्य जुड़े होते हैं। प्रतिष्ठा, जिसे व्यक्ति ने प्राप्त किया है, की अपेक्षा प्रस्थिति सामाजिक स्थिति से जुड़ी होती है। उदाहरणार्थ, एक दुकानदार की तुलना में डॉक्टर की प्रतिष्ठा ज्यादा होगी, चाहे उसकी आय कम ही क्यों न हो।
- सामाजिक प्रस्थिति- प्रस्थिति व्यक्ति को समाज में प्राप्त स्थान है। प्रस्थिति को प्रमुख तौर पर दो भागों में बाँटा गया है-प्रस्थिति के दो भेद हैं (Status in of two types)-प्रदत्त्त प्रस्थिति (Ascribed Status) और अर्जित प्रस्थिति (Achieved Status)।
प्रदत्त्त प्रस्थिति अर्जित प्रस्थिति 1. हम इसे जन्म, जैविक विरासत, अभिभावक की प्रस्थिति के आधार पर प्राप्त करते हैं। 1. व्यक्ति इसे अपनी योग्यता एवं प्रयत्न द्वारा प्राप्त करता हैं। 2. व्यक्ति इस प्रस्थिति का चुनाव नहीं करता है। 2. यह व्यक्तियों के चुनाव पर आधारित है। 3. प्रस्थिति का परिवर्तन कठिन हैं। 3. व्यक्ति इसे शैक्षणिक योग्यता, आय आदि के द्वारा परिवर्तित कर सकता हैं। 4. परम्परागत समाज में यह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उदाहरणार्थ-जाति। 4. आधुनिक समाज में यह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उदाहरणार्थ-वर्ग। - प्रस्थिति और प्रतिष्ठा अंत : संबंधित शब्द है-
हे स्थिति के अपने कुछ अधिकार और मूल्य होते हैं। प्रस्थिति या पदाधिकार से जुड़े मूल्य के तरह प्रतिष्ठा कहते हैं। अपनी प्रतिष्ठा के आधार पर लोग अपनी प्रस्थिति को ऊँचा या नीचा दर्जा दे सकते हैं। उदाहरण- एक दूकानदार की तुलना में एक डॉक्टर की प्रतिष्ठा ज्यादा होगी चाहे उसकी आय कम ही क्यों न हो। - भूमिका (Role)-प्रस्थिति तथा भूमिका अंतःसंबंधित हैं, क्योंकि भूमिका प्रस्थिति का व्यावहारिक परिदृश्य है। यह प्रत्याशित व्यवहार हैं, जिसका संबंध प्रस्थिति से है। उदाहरण, किसी छात्र की प्रस्थिति के साथ निश्चित प्रत्याशित व्यवहार जुड़े होते हैं। फिर भी, जहाँ प्रस्थिति प्राप्त की जाती है, वहाँ भूमिका निभाई जाती है।
- समाजीकरण (Socialisation)
भूमिका संघर्ष (Role conflict)-प्रत्येक व्यक्ति समाज में विभिन्न भूमिकाएँ निभाता है। भूमिका संघर्ष तब होता है, जब दो या अधिक भूमिकाओं से विरोधी अपेक्षाएँ उतपन्न होती हैं। उदाहरणार्थ, आधुनिक कामकाजी महिला का ऐसा मानना है कि व्यावसायिक रूप में उसकी भूमिका का संघर्ष किसी माँ/माता तथा पत्नी की भूमिका के साथ हैं। - भूमिका स्थिरीकरण (Rolestereotyping)-यह कुछ विशिष्ट भूमिकाओं को सुदृढ़ करने की प्रक्रिया है। उदाहरण, विज्ञापन एवं फिल्मों में कमाने वाले पति तथा घर चलाने वाली पत्नी अकसर रूढ़िबद्ध भूमिकाओं को निभाते हैं। सामाजिक भूमिकाएँ और प्रस्थितियाँ स्थिर नहीं होती हैं। लोग भूमिका तथा प्रस्थिति में परिवर्तन के लिए प्रयास करते हैं। उदाहरण, दलित लोग जाति के आधार पर उनसे जुड़ी निम्न प्रस्थिति का विरोध कर रहे हैं।
- सामाजिक स्तरीकरण (Social Stratification)
सामाजिक स्मरीकरण = समाज में पाए जाने वाले अनेक समूहों का ऊँच-नीचे या छोटे-बड़े के द्वारा अनेक स्तरों में विभाजित हो जाना ही सामाजिक स्मरीकरण कहा जाता है। - सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताएँ:
- स्तरीकरण की प्रकृति सामाजिक है।
- स्तरीकरण के विभिन्न स्वरूप होते है वर्ग, जाति, आयु, लिंग और समाज।
- सभी समाजो में स्तरीकरण पाया जाता है।
- स्तरीकरण बहुत पुराना है।
- स्मरीकरण से जीवनशैली में विविधताएं पाई जाती है।
- सामाजिक स्तरीकरण और प्राकृतिक/स्वाभाविक असमानताएँ :-
सामाजिक स्तरीकरण का जैविक आधार की अपेक्षा सामाजिक आधार हैं। ये सामाजिक तौर पर सृजित विभिन्नताएँ हैं।
जब सामाजिक विभिन्नताओं का जन्म होता है, तब जैविक असमानताएँ सांस्कृतिक रूप से जुड़ी होती हैं और पक्षपातों को बल देती हैं।
उदाहरण के लिए, जातीयता और लिंग आधारित समानताओं का जैविक असमानताओं से कोई संबंध नहीं हैं। काले लोग उच्च कोटि की नौकरियों के लिए 'स्वभाविक रूप से अयोग्य' नहीं हैं। और न औरतें हीं बौद्धिक विशिष्टता के अर्थ में 'स्वभाविक रूप से कमजोर' होती हैं।
दूसरा उदाहरण वृद्धावस्था का है। वृद्धावस्था विभिन्न समाजों में अलग-अलग तरीकों से मूल्यांकित की गई है। पारंपरिक समाजों में वृद्धावस्था को शक्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त है, परंतु आधुनिक समाजों में वृद्धावस्था को अधिक मान-सम्मान नहीं है। - सामाजिक गतिशीलता (social Mobility)
इसका सरोकार विभिन्न सामाजिक-आर्थिक (socio-economic) स्थितियों के मध्य व्यक्तियों और समूहों की गति से है। - स्तरीकरण की खुली और बंद व्यवस्था (Open and Closed Systems of Stratification)
स्तरीकरण की खुली व्यवस्था स्तरीकरण की बंद व्यवस्था सामाजिक गतिशीलता आसान है। सामाजिक गतिशीलता सीमित है और जटिल है। समाज में व्यक्तिगत स्थिति अर्जित-प्रस्थिति पर निर्भर करती हैं। वैयक्तिक स्थिति प्रदत्त्त-प्रस्थिति पर निर्भर है। आधुनिक समाज में यह सुप्रकट है। पारंपरिक समाज में यह सुस्पष्ट है। उदाहरणार्थ-वर्ग (Class)। उदाहरणार्थ-जाति, दासता।
- वर्ग के आधार पर स्तरीकरण
- वर्ग का संबंध किसी समूह से है, जो समान आर्थिक संसाधनों का आदान-प्रदान करता है, जैसे कि आय या संपत्ति, संपदा।
- समान वर्ग के सदस्यगण निम्नलिखित का आदान-प्रदान करते हैं:
- समान आर्थिक अभिरुचियाँ, ताकि वे किसी संघ का निर्माण कर सकें। उदाहरण, किसी औद्योगिक समाज में फैक्ट्री कारीगरों के माध्यम से मज़दूर संघ का निर्माण किया गया है।
- उनकी जीवनशैली एक समान होती है।
- वे जीवन के समान अवसरों का आदान-प्रदान भी करते हैं, क्योंकि स्वास्थ्य, शिक्षा आदि पर उनकी समान पहुँच होती है।
- वर्ण के प्रकार-
- उच्च वर्ग
- मध्यम वर्ग
- निम्न वर्ग
- कृषक वर्ग
- वर्ग की विशिष्टिताएँ (Features of a Class)
- जाति-व्यवस्था के विपरीत वर्ग पर कोई धार्मिक या कानूनी रोकथाम नहीं होता है।
- वर्ग की सदस्यता मुख्य रूप से अर्जित प्रस्थिति पर निर्भर है।
- स्तरीकरण की यह एक खुली पद्धति/व्यवस्था है। सामाजिक परिवर्तन सापेक्षिक तौर पर आसान है।
- जाति के आधार पर स्तरीकरण (Caste as a System of Stratification)
- जाति का संबंध सामाजिक सम्मान/प्रतिष्ठा के अर्थ में असमानताओं से है।
- जाति प्रदत्त समूह हैं, जिसकी सदस्यता जन्म के आधार पर होती है।
- जाति संरचना में सभी जातियो का संस्तरण ऊँच-नीच के आधार पर बना हुआ है।
यह हिंदू समाज की संस्थानिक विशिष्टता है, लेकिन इसका प्रसार अन्य इतर हिंदू समुदायों (Non-Hindu Communitics) में भी हो चुका है। जैसे कि ईसाई, मुस्लिम तथा सिख।
यद्यपि पारम्परिक भारत में इसका ज़्यादा आवश्यक था तथापि आधुनिक भारत के राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में भी इसकी जड़े सटीक है।
- जाति व्यवस्था के बदलते प्रतिमान-
- व्यवसायिक प्रतिबंधों में परिवर्तन।
- खान-पान संबंधी प्रतिबंधों में परिवर्तन।
- विवाह संबंधी प्रतिबंधों में परिवर्तन।
- शिक्षा संबंधी प्रतिबंधों में परिवर्तन।
- जाति और वर्ग में अंतर-
जाति वर्ग 1. जाति जन्म आधारित है। सामाजिक प्रस्थिति पर आधारित है। 2. जाति एक बंद समूह है। वर्ग एक खुली व्यवस्था है। 3. विवाह, खान-पान आदि के कठोर नियम हैं। वर्ग में कठोरता नहीं है। 4. जाति व्यवस्था स्थिर संगठन है। वर्ग व्यवस्था जाति व्यवस्था के मुकाबले कम स्थिर है। 5. यह प्रजातंत्र व राष्ट्रवाद के प्रतिकूल है प्रजातंत्र और राष्ट्रवाद में बाधक नहीं। - जाति और वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति (Origin of Caste and warna Scheme)
जाति व्यवस्था के निश्चित काल को प्रदर्शित करने के लिए कोई विश्वनीय साक्ष्य नहीं हैं। विभिन्न अवधियों में जाति व्यवस्था कई तरह के सूचक थे। वस्तुतः ऐसा विश्वास किया जाता है कि जाति व्यवस्था की उत्पति ऋग्वैदिक समाज की वर्ण व्यवस्था में हुई थी। अपने प्रारंभिक काल में (उत्तर वैदिक काल 900 से 500 ई०पू० के मध्य) जाति व्यवस्था वस्तुतः वर्ण व्यवस्था थी। - वर्ण व्यवस्था (Varna System)
वर्ण का शाब्दिक अर्थ 'रंग' हैं। व्यवसाय और रंग के आधार पर वर्ण व्यवस्था ने हिंदू समाज को चार भागों में विभाजित कर दिया था।- ब्राह्मण - पुजारी।
- क्षत्रिय - सेना तथा राजा।
- वैश्य - व्यापारी।
- शूद्र - सेवक जाति, जैसे-शिल्पकार, किसान (खेतिहर) इत्यादि।
- पवित्रता और अपवित्रता के विचार (Ideas of Purity and Pollution) :
पारंपरिक भारत में जाति संस्तरण 'पवित्रता एवं अपवित्रता' के विचार पर निर्भर था, जिसका आधार धार्मिक ग्रंथ थे। यह माना जाता था कि 'सर्वाधिक पवित्र' ब्राह्मण पूज्य हैं, इसलिए वे अन्य सभी जातियों में सबसे उच्च हैं। 'अछूत' या 'अस्पृश्य' सबसे अपवित्र हैं, इसलिए वे निम्न श्रेणी के हैं। यहाँ तक कि ब्राह्मणों का स्पर्श पवित्र समझा जाता था, जबकि कथित अछूतों का स्पर्श, छाँव एवं व्यवसाय-सब कुछ अपवित्र समझा जाता था। - जाति के अभिलक्षण (Features of Caste) : उपर्युक्त वर्णित अभिलक्षण केवल निर्धारित नियम हैं, जो प्राचीन ग्रंथों में पाए जाते हैं। इस संदर्भ में हमारे पास कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं है। इन नियमों ने विभिन्न जातियों के जीवन को वस्तुतः या आनुभविक रूप से निर्धारित किया।
- जाति प्रदत्त हैं- जाति का निर्धारण जन्म के आधार पर किया गया है।
- जाति सगोत्र विवाह संबंधी हैं। जैसे-विवाह समूह के सदस्यों तक ही सीमित हैं।
- खान-पान संबंधी प्रतिबंध-जाति सदस्यता का संचालन भोजन तथा भोजन के आदान-प्रदान के नियमों द्वारा होता है। किस प्रकार का भोजन ग्रहण किया जाए या नहीं किया जाए निर्धारित हैं तथा किसके साथ भोजन का आदान-प्रदान किया जाए यह भी निर्धारित है।
- किसी व्यक्ति का जन्म उसके माता-पिता की जाति में होता है। तथा समाज में जाति चुनाव की वस्तु नहीं मानी गई है। कोई न तो अपनी जाति को बदल सकता है और न इसे छोड़ सकता है।
- प्रतिष्ठा और प्रस्थिति का संस्तरण (Hierarchy) - सभी जातियाँ सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रस्थिति के संस्तरण में सुव्यवस्थित हैं। विभिन्न जातियों की श्रेणीबद्ध स्थिति एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में बदल जाती हैं।
- खंडीय संगठन- जाति के द्वारा उपजातियाँ पाई जाती हैं। जैसे कि जाति की प्रायः उपजातियाँ हैं तथा उपजातियों की भी उपजातियाँ हो सकती हैं।
- व्यवसाय के साथ पारंपरिक संबंध-किसी जाति में जन्मा हुआ व्यक्ति केवल उस जाति से संबंधित व्यवसाय को अपना सकता है। इसलिए, जाति व्यवस्था के द्वारा व्यवसाय वंशानुगत हैं।
- वर्ण और जाति (Character and Cast)
1950 तथा 1970 के द्वारा गाँवों के समाजशास्त्रीय अध्ययन ने पता लगाया कि जाति जिस रूप में स्थानीय स्तर पर वस्तुतः कार्य करती है, वह वर्ण व्यवस्था से पृथक हैं।
एक वृहत अखिल भारतीय योगात्मक स्वरूप में वर्ण तथा जाति वर्गीकरण के अंतराल में प्रचलित संस्तरण हैं। लेकिन एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में यह बदलाव हैं।
भारत में केवल चार वर्ण हैं-प्रत्येक क्षेत्र में एक जटिल वर्गीकरण । समकालीन भारतीय गाँवों में सैकड़ों जातियाँ और उपजातियाँ हैं। अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि समकालीन भारत में जाति व्यवस्था के दो परिदृश्य हैं:- आनुष्ठानिक परिदृश्य (Ritual Aspect)-यह पवित्रता के विचार पर आधारित है, इसका स्रोत धर्म ग्रंथ हैं।
- धर्मनिरपेक्ष परिदृश्य (Secular Aspect)-यह आर्थिक एवं राजनीतिक परिदृश्य-दोनों का ध्यान रखता हैं। अतः स्थानीय संस्तरण में जातीय स्थिति अनगिनत कारकों पर निर्भर करती हैं:
- किसी जाति के अनुष्ठान और प्रथाएँ।
- कृषि भूमि (Land holding)।
- राजनीतिक सत्ता इत्यादि।
- खानपान (Food habits) शाकाहारी या मांसहारी (Pork eating or non-pork eating)।
- व्यवसाय।
- संस्कृतिकरण (Sanskritisation)
- इसका अर्थ उस प्रक्रिया से है, जिसके द्वारा एक 'निम्न' हिंदू जाति या जनजाति 'द्विज जाति' की प्रथाओं, अनुष्ठानों तथा जीवन शैली की प्रतिस्पर्धा करते हुए स्थानीय संस्तरण में गतिशीलता का उच्च स्तर प्राप्त करने की कोशिश करता है।
- संस्कृतिकरण की संकल्पना से श्रीमान एम०एन० श्रीनिवास (Mr. M.N. Srinivas)के माध्यम से परिचय कराया गया।
- प्रबल जाति (Dominant Caste)
प्रबल जाति एक शब्द है, जिसका परिचय ग्रामीण भारत में परिवर्तन की, प्रक्रिया को समझने हेतु श्रीमान एम०एन० श्रीनिवास (Mr. M.N. Srinivas) द्वारा कराया गया था। प्रबल जाति वे अंतःस्थ/मध्यम जातियाँ हैं, (प्रबल जाति को ब्राह्मण जाति का होना आवश्यक नहीं हैं। पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में गैर-ब्राह्मण जातियाँ प्रबल जातियाँ हैं) जो निम्नलिखित विशेषताओं के कारण स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर प्रभुत्व रखती हैं:- राजनीतिक शक्ति (Political Power)-संख्या की दृष्टि से प्रबल जाति प्रभावी हैं। इससे क्षेत्रीय राजनीति में उनका प्रभुत्व है। प्रबल जाति के उदाहरण, आंध्रप्रदेश के रेड्डी, पंजाब, बिहार और उत्तर प्रदेश के यादव, तथा हरियाणा के जाट।
- आर्थिक शक्ति (Economic Power)-उनके पास ज़्यादा मात्रा में कृषि भूमि है। भूमि सुधार के बाद उनमें से ज़्यादातर लोग भूमि सतत्व अधिकार को पाने में सफल रहे। अतः कृषि अर्थव्यवस्था पर उनका प्रभुत्व है। इसके अलावा आय के नगरीय संसाधन, पश्चिमी शिक्षा तथा सरकार एवं प्रशासन की नौकरियों पर उनका दबदबा है।
- सामाजिक नियंत्रण (Social Control)
यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से समाज में व्यवस्था स्थापित होती है और बनाए रखा जाता है। समाज मनुष्यों का सामंजस्यपूर्ण संघ है। व्यक्तियों से उम्मीद की जाती है कि वे अपनी भूमिका और कार्य का निर्वाह तदानुसार करें। सह-अस्तित्व तथा विकास के लिए समाज को अपने सदस्यों पर कुछ नियंत्रण रखना जरूरत है। इस तरह के नियंत्रणों को सामाजिक नियंत्रण की संज्ञा दी गई है। - एल० बनार्ड (L. Bernard) के अंतर्गत, "सामाजिक नियंत्रण एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कुछ व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूहों पर प्रभावकारी ढंग से प्रोत्साहन उत्पन्न किया जाता है और इस प्रकार से उत्पन्न प्रतिक्रियाएँ समूह के साथ मेल-मिलाप स्थापित करने का कार्य करती हैं।"
- सामाजिक नियंत्रण की विशेषताएँ (Characteristics of Social Control)
सामाजिक नियंत्रण के निम्नलिखित अभिलक्षण हैं:- समाज प्रभाव का प्रयोग करता है-इसका अर्थ है कि समूह किसी एक व्यक्ति की अपेक्षा अनेक व्यक्तियों पर अधिक सुगमता से प्रभाव उत्पन्न करने में सक्षम है। यह समूह परिवार, चर्च, राज्य, क्लब, विद्यालय, मज़दूर संघ इत्यादि हो सकता है। प्रभाव का प्रयोग किसी समूह के कल्याण के लिए किया जाता है। जैसे समग्र सामाजिक नियंत्रण का प्रयोग कुछ विशिष्ट उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया जाता है, वैसे उद्देश्य का सरोकार समग्र समूह के कल्याण से है। व्यक्ति को दूसरों के अस्तित्व और अभिरुचि के प्रति जागरूक बनाया जाता है। इस प्रकार सभी की अभिरुचि को विकसित करना आवश्यक है।
- प्रभाव के रूप में-प्रश्न,और कोई अन्य माध्यम, लोक विचार, जो किसी समूह के लिए उचित हो, के द्वारा अत्यधिक प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है।
- सामाजिक नियंत्रण की आवश्यकता (Need for Social Control)
- सामाजिक सुरक्षा।
- समूह में एकरूपता।
- संस्कृति के मौलिक तत्त्वों की रक्षा।
- सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करना।
- मानव व्यवहार को नियंत्रण करना।
- सामाजिक नियंरण के प्रकार-
- औपचारिक नियंत्रण- जब नियंत्रण के सहिंताबद्ध, व्यवस्थित और अन्य औपचारिक साधन इस्तेमाल किए जाते हैं तो औपचारिक सामाजिक नियंत्रण उदाहरण- राज्य, कानून, पुलिस आदि। अपराध की गंभीरता के अनुसार यह दंड साधारण जुर्माने से लेकर मृत्युदंड हो सकता है।
- अनौपचारिक नियंत्रण- यह व्यक्तिगत, अशासकीय और असंहिताबाद्ध होता है। उदाहरण- परंपरा, रूढ़ी धर्म, प्रथा, आदि ग्रामीण समुदाय में जातीय नियमों का उल्लंघन करने पर हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता है।
- सामाजिक नियंत्रण के दृष्टिकोण-
- प्रकार्यवादी दृष्टिकोण-
- समाज में व्यवस्था बनाए रखने हेतु मूल्यों एवं प्रतिमानों को लागू करना।
- व्यक्ति तथा समूह के व्यवहार को नियंत्रित करने हेतु बल का इस्तेमाल करना।
- संघर्षवादी दृष्टिकोण-
- कानून को समाज में उनके हितों के औपचारिक दस्तावेज और शक्तिशालियों के रूप में देखना।
- समाज के प्रभावों वर्ग का बाकी समाज पर नियंत्रण को सामाजिक नियंत्रण के साधन के रूप में देखते हैं।
- प्रकार्यवादी दृष्टिकोण-
- सहकारी विचारों के विकास के लिए (To Develop Cooperative Views)
सामाजिक नियंत्रण की मदद से अपनी स्वभाव, स्थिति, अभिरुचियों तथा प्रस्थिति के अंतर्गत व्यक्ति एक-दूसरे के संपर्क में आने के योग्य हैं। इस तरह वे सहकारी स्वभाव को विकसित करते हैं, जोकि समाज के विकास हेतु आधारभूत घटक है। - सामाजिक प्रतिबंध या दण्ड-विधान (To Provide Social Sanction)
1 .सामाजिक नियंत्रण सामाजिक प्रतिबंध एवं व्यवहार/स्वभाव के सामाजिक ढंगों को कायम करता हैं।
2. सभी समाजो में अनगिनत प्रतिमान व प्रथाएँ हैं। हर व्यक्ति इनका अनुगमन करना पड़ता है। यदि कोई व्यक्ति सामाजिक प्रतिमानों का उल्लंघन करता है, तो वह उनके अनुपालन में सामाजिक नियंत्रण के माध्यम से बाध्य किया जाता है।
उपर्युक्त तर्क सामाजिक नियंत्रण के महत्व को प्रदर्शित करते है। - सामाजिक नियंत्रण के माध्यम और साधन (अभिकरण) (Means and Agencies of Social Control)
वे। जिनके द्वारा व्यक्तियों को समूह के व्यवहार और जीवन-मूल्यों के अनुपालन के लिए बाध्य किया जाता है, अनंत हैं। उनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रथा, कानून, लोकविचार, धर्म, नैतिकता, सामाजिक सुझाव एवं प्रतिमान हैं। - प्रथा और कानून (Customs and Laws)
प्रथा, कानून व रीति सामाजिक नियंत्रण को बनाये रखने में आवश्यक भूमिका रखते हैं। उनमें से प्रथा सामाजिक व्यवहार के नियंत्रण हेतु एक आवश्यक तत्व हैं इसके साथ ही समाज में इसकी जरूरत को कम नहीं किया जा सकता है। वे सबसे ज़्यादा शक्तिशाली हैं तथा सामाजिक जीवन को नियंत्रित करते हैं। वे किसी समाज के जीवन के लिए बहुत आवश्यक हैं तथा अनपढ़ लोगों के मध्य सबसे प्रबल हैं। वे हमारी संस्कृति की रक्षा करते हैं तथा भावी पीढ़ी तक इसका विस्तार करते हैं। वे लोगों को इक्क्ठा करते हैं तथा उनके बीच सामाजिक संबंधों को विकसित करते हैं। - प्रथा की विशिष्टताएँ (Characteristics of Custom):
- प्रथा मानकों (Normative) है।
- प्रथा की सामाजिक तौर पर मान्यता प्राप्त है।
- प्रथा बाह्य प्रतिबंध हैं।
- प्रथा का अत्यधिक सामाजिक महत्त्व है।
- प्रथा एक सामाजिक प्रपंच (प्रतिभास) हैं।
- प्रथा सामाजिक क्रम को कायम रखती हैं।
- प्रथा वंशानुगत हैं।
- कानून (Law)
साधारण समाज में व्यक्तियों के व्यवहार के नियंत्रण हेतु पर्याप्त प्रतिमान एवं प्रथाएँ थीं, क्योंकि उनके अनुपालन में कोई विरोध नहीं था, लेकिन आधुनिक सभ्य समाज में प्रथा की पकड़ ढीली पड़ गई है। परिणामतः व्यक्तियों के नियंत्रण के लिए कानून राज्य द्वारा अधिनियमित किया जाता है।
मेकाइवर (Macaiver) और पेज़ (Page) के अनुसार, "कानून नियमों का पुलिंदा है, जिसको मान्यता प्राप्त है, जिसकी व्याख्या की गई हैं एवं राज्य के न्यायालय द्वारा विशेष परिस्थिति में प्रयोग किया गया है।" - कानून की विशेषताएँ-
- कानून मानवीय क्रियाकलापों की सामान्य स्थिति है, जिसे राज्य द्वारा इसके सदस्यों के लिए निर्दिष्ट किया गया है।
- यह चेतना एवं योजनाबद्ध और सुविचारित निरूपण की उपज है।
- कानून सुस्पष्ट, साफ एवं संक्षिप्त है।
- तद्रूप (Identical) परिस्थितियों के अतिरिक्त वे सभी के लिए समान हैं।
- कानून का उल्लंघन करने वाला दण्ड का भागी है, जिसे राज्य के अधिकारी द्वारा निश्चित किया जाता है।
- सामाजिक परिवर्तन के घटक (Factors of Social Change)
अनेक ऐसे घटक हैं, जो सामाजिक परिवर्तन के लिए जवाबदेह हैं- - पारिस्थितिक घटक (Ecological Factors)
मानव के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहाँ फली-फूली (विकसित) सभ्यताएँ प्राकृतिक आपदाओं द्वारा नष्ट कर दी गई। उदाहरण के लिए कहा जाता हैं कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यताएँ भूकम्प के कारण गुम हो गई। इससे भी बढ़कर भौगोलिक स्थितियों का सरोकार वस्त्रों के प्रकार जो लोग पहनते हैं, भोजन जो वे करते हैं, भाषा जों वे बोलते हैं, इत्यादि से है। फिर भी भूकम्प, बाढ़, तूफान और अन्य प्राकृतिक घटनाओं के विषय में ज्ञात है कि वे अचानक सामाजिक संरचना को परिवर्तित कर देती हैं।