हर्ष और उसका काल – HARSHA’S KINGDOM

 

हर्ष और उसका काल – HARSHA’S KINGDOM

हर्ष और उसका काल – HARSHA’S KINGDOM

गुप्त लोगों ने उत्तर प्रदेश और बिहार स्थित अपने सत्ता-केन्द्र से उत्तर और पश्चिम भारत पर छठी शताब्दी ई० के मध्य तक (लगभग 160 वर्षों तक) शासन किया. हूणों के आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य को कमजोर बना दिया. इसके पतन के बाद उत्तर भारत फिर अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया. श्वेत हुणों ने कश्मीर, पंजाब और पश्चिमी भारत पर लगभग 500 ई० से अपना अधिकार स्थापित कर लिया. उत्तर और पश्चिसी भारत अनेक सामन्तों के नियंत्रण में चला गया, जिन्होंने गुप्त साम्राज्य को परस्पर विभाजित कर लिया. इस तरह गुप्त लोगों के पतन के साथ-साथ उत्तर भारत में नए राजवंशों का उदय प्रारम्भ हुआ. वल्लभी में मैत्रकों ने स्वतंत्र वंश की स्थापना की. स्थानेश्वर (या थानेश्वर) (यह शहर दिल्‍ली के उत्तर में कुरुक्षेत्र के समप वर्तमान हरियाणा राज्य में था) में पुष्यभूति वंश के वर्धन शासकों का राज्य उठ खड़ा हुआ. कन्नौज में मौखरी, बंगाल में चंद्रशासक ओर मगध में गुप्तों की एक शाखा शासन करने लगी. पाँचवी शती के अन्तिम चरण से लेकर छठी शती के अन्त तक उत्तरी भारत इस प्रकार अनेक राज्यवंशों के आपसी द्वंद्व का अखाड़ा बन गया. इस द्वंद्व में हर्षवर्धन को सर्वाधिक सफलता मिली और उसने अपनी सत्ता अनेक सामन्तों एवं राजाओं पर स्थापित कर लिया .

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राज्यवर्धन की हत्या

606 ई० हर्षवर्धन स्थानेश्वर के शासक बने. उनके पिता प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के बाद उनके भाई राज्यवर्धन शासक बने थे. परन्तु तभी वर्धन वंश पर विपत्ति के बादल मंडराने लगे. मालवा के शासक देवगुप्त ने बंगाल के शासक शशांक के साथ मिलकर कन्नौज के मौखरी शासक गृहवर्मन की हत्या कर दी ओर उसकी पत्नी राज्यश्री को बंदी बना लिया. राज्यश्री थानेश्वर के तत्कालीन शासक राज्यवर्धन और हर्षवर्धन की बहन थी. राज्यश्री की इस दुर्गति को सुनकर राज्यवर्धन मालवा नरेश देवगुप्त और बंगाल नरेश शशांक से बदला लेने चल पड़े. उसे देवगुप्त को हराने में सफलता प्राप्त हुई परन्तु शशांक ने उन्हें अपने युद्ध शिविर में मित्रता का प्रदर्शन करते हुए आमंत्रित किया तथा गुप्त रूप से उसकी (राज्यवर्धन की) हत्या कर दी.

हर्ष ने अपनी बहन को बचाया

राज्यवर्धन की हत्या का समाचार पाकर हर्षवर्धन ने शशांक से बदला लेने की प्रतिज्ञा करते हुए स्थानेश्वर (थानेश्वर) राज्य की बागडोर सम्भाली. जब हर्ष शशांक से बदला लेने के लिए आगे बढ़ा तो उस ज्ञात हुआ कि उसकी बहन राज्यश्री शत्रु की कैद से निकलकर विन्ध्य के पर्वतों में भाग गई है. हर्ष को अपनी बहन के उद्धार के लिए जाना पड़ा और एक बौद्ध भिक्षु दिवाकर मित्र की सहायता से विन्ध्य के जंगलों में उसने राज्यश्री को तब ढूंढ़ निकाला, जब वह सती होने जा रही थी. राज्यश्री की रक्षा करके हर्ष कन्नौज लौटे. राज्यश्री अपने पति (ग्रहवर्मन) के राज्य की उत्तराधिकारिणी थी. राज्यश्री ने अपना राज्य अपने भाई हर्ष को सौंप दिया. हर्ष ने कन्नौज को अपनी नयी राजधानी बनाया तथा वहीं से सभी दिशाओं में अपनी सत्ता का विस्तार किया.

पाटलिपुत्र का महत्त्व घटा

इस काल के दौरान पाटलिपुत्र (जो मौर्य काल से ही प्रमुख राजनतिक नगर रहा था) के दुर्दिन आ गए और कन्नौज प्रमुख हो गया. पर सवाल यह उठता है कि ऐसा कैसे और क्यों हुआ? दरअसल, पाटलिपुत्र की शक्ति और महत्त्व राजधानी होने के साथ-साथ व्यापार-वाणिज्य तथा मुद्रा के व्यापक प्रयोग के कारण था. पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण से चारों नदियों के रास्ते नगर में आने वाले व्यापारियों से चुंगी कर वसूल किया जाता था. परन्तु मुद्रा का अभाव होते ही (विद्वानों की राय है कि रोमन साम्राज्य द्वारा भारत के साथ होने वाले व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाने से सोने-चांदी का भारत में अभाव हो गया था) व्यापार का ह्रास हो गया तथा अधिकारियों तथा सैनिकों को भूमि-अनुदानों द्वारा भुगतान करने की प्रथा आरम्भ हुई.

हर्ष के काल में यह नगर राजधानी भी नहीं रही. परिणामस्वरूप इस नगर (अर्थात पाटलिपुत्र) ने अपना महत्त्व खो दिया. वास्तविक शक्ति सैनिक शिविर या स्कंधावरों (military champs) में चली गई, और वे सैनिक महत्त्वपूर्ण बन गये जिनका बड़े भू-भागों पर प्रभुत्व था. उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में स्थित कन्नौज ऐसा ही एक स्थान था. उसे छठी शताब्दी के उत्तरार्ध से राजनीतिक श्रेष्ठता प्राप्त हो गई.

बाणभट्ट

हर्ष के शासन काल का आरम्भिक इतिहास बाणभट्ट के अध्ययन के आधार पर प्रस्तुत किया जा सकता है. बाणभट्ट हर्ष का दरबारी कवि था. बाणभट्ट ने “हर्षचरितम्” नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा/ उसकी दूसरी प्रसिद्ध रचना “कादम्बरी” है. यह एक काव्य ग्रंथों से हर्ष के बारे में विस्तृत जानकारी मिलने के साथ-साथ तत्कालीन, सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति का भी ज्ञान प्राप्त होता है. यद्यपि में कवि कल्पना हर्षचरितम् का बहुत पुट है तो भी यह एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत है. इस ग्रंथ के कुल सात भाग हैं. प्रथम भाग में लेखक ने अपने परिवार तथा अपना परिचय दिया है. अन्य तीन भागों में हर्ष के पूर्वजों एवं थानेश्वर के राजवंश के इतिहास का वर्णन दिया है. अन्य दो भागों में हर्ष की विजयों तथा विन्ध्यवनों के रहने वाले धार्मिक-सम्प्रदायों का वर्णन मिलता है. यह ग्रंथ ह्वेनसांग के विवरण की परिपुष्टि करन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है.

ह्वेनसांग

हर्ष संबधी इतिहास को ह्वेनसांग के विवरण से पूरा किया जा सकता है. वह बौद्ध धर्म के ग्रन्थों का अध्ययन करने एवं बौद्ध धर्म सम्बन्धी तीर्थस्थानों की यात्रा करने भारत आया था. उसने हर्षवर्धन काल के भारत का वर्णन अपनी पुस्तक सि-यु-की में लिखा. उसकी यह रचना उस समय के इतिहास को जानने के लिये बहुत उपयोगी व विश्वसनीय साधन है. ह्वेनसांग का जन्म 600 ई. में हुआ. 20 वर्ष की आयु में वह बौद्ध भिक्षु बन गया. वह भारत 629 ई० में आया. उसने भी करीब-करीब फाह्यान के यात्रा मार्ग को अपनाया. वह चीन से चला और गोबी रेगिस्तान (मध्य एशिया) को पार कर ताशकन्द, समरकन्द, बखल व काबुल होता हुआ गान्धार, तक्षशिला, काश्मीर, पंजाब, थानेश्वर, दिल्ली और मथुरा होते हुए कन्नौज आया. वहाँ वह हर्ष का अतिथि बनकर कुछ समय ठहरा. फिर उसने कई बौद्ध तीर्थ यात्रायें की जैसे सारनाथ, कपिलवस्तु, बौद्ध गया तथा कुशीनगर. वह भारत में पन्द्रह वर्षों तक रहा तथा नालन्दा विश्वविद्यालय में उसने दो वर्ष व्यतीत किये. वह अपने साथ अनेक बौद्ध ग्रंथ तथा हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ ले गया. जब वह चीन 644 ई० वापस पहुँचा तो उसका अत्यधिक स्वागत हुआ. उसके बाद भी अनेक चीनी यात्री भारत में आये. 664 ई० में इस विद्वान की मृत्यु हो गई. हर्ष के अभिलेखों में विभिन्‍न प्रकार के करों और अधिकारियों का उल्लेख है.

हर्षवर्धन की विजयें (CONQUESTS)

विभिन्‍न ऐतिहासिक स्रोतों के आधार पर कहा जा सकता है कि हर्ष ने केवल बंगाल के शासक शशांक से बदला ही नहीं लिया अपितु अपनी शक्ति का प्रसार उत्तरी भारत के अन्य राज्यों में भी किया. ह्वेनसांग के अनुसार, उसने उत्तरी भारत के पांच प्रदेशों को अपने अधीन किया. ये पांच प्रदेश सम्भवत: पंजाब, कन्नौज, गौड़ या बंगाल, मिथिला और उड़ीसा के राज्य थे. पश्चिम में उसने वल्लभी के शासक ध्रुवसेन द्वितीय से भी अपना लोहा मनवाया. इसके अधीन पश्चिमी मालवा का राज्य भी था. ध्रुवसेन द्वितीय के साथ उसने अपनी पुत्री का विवाह कर दिया और इस प्रकार एक शक्तिशाली मित्र प्राप्त किया. हर्ष को अनेक विजय प्राप्ति तथा विशाल साम्राज्य निर्माण करने के कारण उत्तर भारत का अन्तिम महान हिन्दू सम्राट कहा जाता है. उसने नेपाल और कश्मीर को छोड़कर लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत पर अपना अधिकार जमा लिया . दक्षिणापथ के चालुक्य शासक पुलकेसिन द्वितीय के सम्मुख उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई. उसको छोड़कर हर्ष को किसी अन्य भाग शासक से गम्भीर विरोध का सामना नहीं करना पड़ा. नि:सन्देह वह एक महान विजेता था तथा उसने देश के एक बड़े भाग को काफी हद तक एकता प्रदान की.

प्रशासन (ADMINISTRATION)

हर्ष ने अपने साम्राज्य पर गुप्त लोगों की तरह ही शासन किया. अन्तर केवल यह था कि उसका प्रशासन अधिक सामंती और विकेन्द्रित हो गया. उसने अपनी शासन व्यवस्था को सुविधापूर्वक चलाने के उद्देश्य से तीन स्तरों – केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय, पर विभाजित किया.

केन्द्रीय शासन

जहां तक केन्द्र का सवाल है, राजा ही केन्द्र में सर्वोच्च प्रशासकीय, विधायी तथा न्याय सम्बन्धी पदाधिकारी था. उसने देश की प्राचीन राजतंत्रीय परम्पराओं के अनुसार राज किया. देश की प्राचीन परम्परा के अनुसार राजा को धर्म का रक्षक, लोगों के कष्टों को दूर करने वाला, लोगों को न्यायदंड देने वाला बताया गया है. हर्ष के राज्यकाल में हम शासक को जनता के अधिक निकट सम्पर्क में आता हुआ पाते हैं. हर्ष ने अपनी विजयों के दौरान राजकीय दौरे को भी अपना कर्त्तव्य समझा. चीनी यात्री ह्वेनसांग ने उसके राजकीय दौरों का विशद विवरण देते हुए कहा है कि राजा अपने साम्राज्य के प्रत्येक क्षेत्र का दौरा करता था. कहीं पर भी वह अधिक दिनों नहीं टिकता था. जहां वह जाता था वहां उसके और उसके सहगोगियों निवास के लिए अस्थायी आवास-स्थान बना दिए जाते थे. पूरा शाही रसोईघर उसके साथ जाता था. गांव वाले दूध, दही, मीठा और फल-फूल का उपहार लेकर राजा को चढ़ावा देने आते थे. पड़ोस के अधीनस्थ शासक और सामंत उसकी सेवा में उपस्थित रहते थे. विदेशी शासकों के राजदूत, विद्वान और अन्य व्यक्ति जो राजा के दर्शन के लिए आना चाहते थे, इन अस्थायी आवास-स्थानों में आकर राजा से मिलते थे. इस प्रकार हम देखते हैं कि हर्ष ने अपने ढंग से अपने साम्राज्य में दौरा करते हुए शासन को सुदृढ़ करने का प्रयास किया .

मंत्रिपरिषद

सम्राट की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी. इस तथ्य की पुष्टि बाण और चीनी यात्री ह्वेनसांग दोनों ही करते हैं. मन्दरिपरिषद आवश्यकता पड़ने पर बड़ा प्रभावशाली उत्तरदायित्व भूमिका निभाती थी. सम्भवत: राज्यवर्धन के काल से ही प्रधानमन्त्री के रूप में भण्डि नामक व्यक्ति कार्य कर रहा था. उसी ने राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात्‌ उत्तराधिकार के प्रश्न को तय करने के लिए अन्य मन्त्रियों की बैठक बुलाई थी तथा उसी सभा ने हर्ष को राजसिंहासन ग्रहण करने के लिए अनुरोध किया था. अवन्ति उसका युद्ध मंत्री, सिंहनाद सेनापति तथा कुन्तल घुड़सवारों की टुकड़ी का नायक था. हाथियों की सेना का प्रधान कुटक कहलाता था. ह्वेनसांग के विवरण से प्रकट होता है कि साधारणतया प्रशासकीय पदाधिकारियों को नकद वेतन नहीं मिलता था. उन्हें भूमिखण्ड दे दिए जाते थे. परन्तु सैनिक पदाधिकारियों को नकद वेतन दिया जाता था.

सेना

कहा जाता है कि हर्ष के पास एक विशाल सेना थी. उसके पास 1,00000 घोड़े, 600000 हाथी तथा करीब इतनी ही पैदल सेना थी. हो सकता है कि यह संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताई गई हो परन्तु उसके साम्राज्य की विशालता को देख कर कहा जा सकता है कि उसकी सेना काफी बड़ी थी. युद्ध के समय सामान्यतः उसे प्रत्येक सामंत निर्धारित सैनिक सहायता देता था. ऐहोल अभिलेख के अन्तर्गत हर्ष के बारे में बताया गया है कि उसकी सेना में सामन्तों द्वारा जुटाई गई सेना ही अधिक थी. इस प्रवृत्ति का एक बुरा प्रभाव भी पड़ा. सम्राट सामंतों पर अधिक-से-अधिक निर्भर हो गया क्योंकि ये सामंत केवल जनता से कर ही नहीं वसूल करते थे वरन् वे ही स्थायी सेना भी रखते थे. सम्राट आवश्यकता पड़ने पर इनसे सैनिक सहायता लिया करता था जिससे केन्द्रीय शक्ति और भी क्षीण हो गई और सामंतों पर निर्भर हो गई.

राजस्व या आय के साधन

राज्य की आय का सबसे बढ़ा साधन भूमि कर ही था. किसानों से उपज का छठा भाग कर के रूप लिया जाता था. इसके अलावा चरागाह, खनिजों पर भी कर लगाया जाता था. चुंगी तथा नदी घाटों से भी आय प्राप्त होती थी. चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार उसने राजस्व को चार भागों में बांटा हुआ था. एक भाग राज्य के खर्च, दूसरा भाग विद्वानों पर व्यय, तीसरा भाग जन-सवा के लिए तथा चौथा हिस्सा धार्मिक कार्यो के लिए था. अधिकारियों को वतन के स्थान पर भूमि ही दान में दे दी जाती थी.

कानून और न्याय व्यवस्था

हर्ष के काल में दंड कठोर थे. परन्तु कानून की व्यवस्था अच्छी नहीं थी. चीनी यात्री ह्वेनसांग को भी डाकुओं ने लूट लिया था. इससे पता चलता है कि आम जीवन और सम्पत्ति सुरक्षित नहीं थे. ह्वेनसांग लिखता है कि देश के कानून के अनुसार अपराध के लिए कड़ा दण्ड दिया जाता था. राजद्रोह के लिए मृत्युदण्ड तथा डकैती के लिए दायां हाथ काट लिया जाता था.

प्रान्तीय तथा स्थानीय शासन

हर्षवर्धन का साम्राज्य कई प्रान्तों में बँटा था. प्रान्तों को मुक्ति या प्रदेश कहते थे. प्रान्त जिलों (विषयों) में बंटे थे. प्रान्त मुक्तिपति तथा जिला विषयपति के अधीन थे. स्थानीय शासन में नगर-शासन के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता किन्तु ग्राम अथवा ग्रामसमूह के अधिकारियों की सूची इस काल में अभिलेखों में पायी जाती है. इन अभिलेखों में दिए गए विवरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि गाँव का शासन सरकारी तौर से बहुत अच्छी तरह संगठित था और गाँव के शासन में गैर-सरकारी स्थानीय लोगों का भी काफी हाथ था. गाँव का शासन “महत्तर” नाम का अधिकारी करता था. वह गांव का सारा शासन चलाता था तथा ऊपर के अधिकारियों को गाँव की स्थिति से परिचित रखता था.

सामाजिक और आर्थिक जीवन (SOCIAL AND ECONOMIC LIFE)

बाणभट्ट और हर्षवर्धन की स्वयं की रचनाओं, ह्वानसांग के यात्रा वर्णन तथा अभिलेखों से तत्कालीन सामाजिक जीवन पर काफी प्रकाश पड़ता है. गुप्तकाल में वर्णाश्रम व्यववस्था का जो पुनरुत्थान हुआ था वही इस काल में सामाजिक संगठन का आधार था. ह्वानसांग ने चारों वर्णों के वे ही कर्म बताए हैं जो परम्परागत रूप से प्रतिपादित थे. उसने ब्राह्मणों के सर्वोच्च होने की बात भी कही है. उसके अनुसार, अपने ज्ञान तथा अच्छे आचार के कारण ब्राह्मण पवित्र और सम्मानित समझे जाते थे.

वैदिक काल में ब्राह्मणों के जो कर्तव्य थे, उनको इस युग के ब्राह्मण भी बड़ी निष्ठा और कर्तव्यशीलता के साथ सम्मानित करते थे. दूसरा वर्ण क्षत्रियों का था. इसकी भी ह्वानसांग बड़ी प्रशंसा करता है. वह लिखता है कि वे (क्षत्रिय) राजवंश की जाति के थे. वे दयालु और प्रजारंजक थे. चीनी यात्री का कथन पूर्णतः सही है. केवल कुछ अपवाद रूप में ही कुछ राज्य गैर-क्षत्रीय जाति के थे. अन्यथा सभी राजा क्षत्रिय थे. बाणभट्ट मूलतः सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी क्षत्रियों का उल्लेख करता है. इस काल के क्षत्रिय भी बड़े कर्तव्यपरायण और निष्ठावान थे. बाण और हर्षवर्धन की रचनाएँ तथा अभिलेख साक्ष्य इस बात को सिद्ध करते हैं कि इस काल के अधिकांश क्षत्रिय ब्राह्मणों का सम्मान करते थे. वैश्य वर्ग भी प्रभावशाली और समृद्ध था. ह्वानसांग के अनुसार वे सामान्यतः व्यापार में लगे हुए थे. वे देश तथा विदेशों में व्यापार एवं लेन-देन के लिए लम्बी यात्राएँ किया करते थे. हर्ष की रचनाओं से पता चलता है कि भारत का व्यापार श्रीलंका तक फैला हुआ था. व्यापार के अतिरिक्त वैश्य कृषि भी करते थे. शूद्रों की अनेक जातियां थीं. निषाद, पारशव, पुक्कुस इत्यादि संकर जातियों का भी उल्लेख मिलता है. इनके अतिरिक्त शुद्रों की कुछ अन्य जातियां थीं – चाण्डाल, मृतप (मरे जानवरों को उठाने वाले) कसाई, मछुआ, जल्लाद इत्यादि.

हर्ष के काल में जातिप्रथा के बन्धन कठोर थे तथा निम्न एवं उच्च जातियों में परस्पर खान-पान पर रोक लगी हुई थी. ऐसा प्रतीत होता है कि समाज के उच्च वर्णों के लोग शूद्रों से अलग रहना पसन्द करते थे. ह्वानसांग लिखता है कि कसाई, मछुआ, जल्लाद, चाण्डाल इत्यादि लोगों की बस्तियाँ सवर्ण हिन्दुओं की बस्ती से अलग रहती थी और वे इस तरह बसाई जाती थीं कि लोग उन्हें पहचान लें. वे प्याज-लहसुन खाते थे. अछूत नगर में आते समय जोर से चिल्लाकर अपने प्रवेश की सूचना देते थे जिससे लोग उनकी छाया से बच जायें. प्रायः वैवाहिक सम्बन्ध अपनी-अपनी जातियों में होते थे. किन्तु अंतर-जातीय विवाह भी सम्भव थे. सामान्यतः विवाह गोत्र के बाहर होता था. बहु विवाह की प्रथा समाज में प्रचलित थी. पुरुषों का पुनर्विवाह तो होता ही था. ह्वानसांग लिखता है कि स्त्रियां कभी अपना पुनर्विवाह नहीं करती थीं. यह बात उच्च वर्णों के लोगों पर ही लागू होती थी क्योंकि शूद्रों और निम्न श्रेणी के विषयों में स्त्रियों का पुनर्विवाह होता था. समाज में दहेज प्रथा की कुप्रथा भी प्रचलित थी. चीनी यात्री ह्वानसांग इस बुराई के सम्बन्ध में मौन है, पर बाण इस बात का संकेत करता है कि विवाह के अवसर पर दहेज दिया जाता था. राज्यश्री के विवाह के अवसर पर बहुत दहेज दिया था. सतीप्रथा जारी थी. जो विधवाएँ जीवित रहती थीं वे श्वेत वस्त्र पहनती थी तथा बालों की एक चुटिया बांधती थी.

इस काल में लड़कों की तरह लड़कियों की शिक्षा का प्रबन्ध था. वे साहित्य, संगीत आदि में प्रवीण होती थीं. समाज में पर्दा प्रथा नहीं थी. राज्यश्रीदरबार में ह्वानसांग बैठकर राजसभा में भाग लेती थी. कुल मिलाकर समाज में स्त्रियों का स्थान अब भी बहुत ऊंचा था और उनका सम्मान कन्या, स्त्री और माता के रूप में होता था.

साधारण जनता का जीवन सादा था. किन्तु नगरों और राजमहलों में लोग विलासी तथा ठाट-बाट से रहते थे. लोग प्राय: शाकाहारी थे. वे अनाज, दूध, घी, फल, सब्जियों आदि का प्रयोग करते थे. लोगों के मकान ईंटों तथा लकड़ियों के बने होते थे.

हर्ष के काल में देश समृद्ध था. लोग कृषि, व्यापार, पशुपालन तथा उद्योग-धंधों द्वारा अपनी जीविका कमाते थे, ह्वानसांग के विवरण से जानकारी मिलती है कि इस काल में खेती करना शूद्रों का ही व्यवसाय था. वस्तुतः यह पूर्णतया सही नहीं है. वैश्य भी खेती किया करते थे. राजा कृषि की प्रगति के लिए विशेष प्रयास करता था. भूमि उत्पादन बहुत ज्यादा था तथा विभिन्‍न प्रकार की सब्जियों तथा फलों की खेती की जाती थी. सम्भवत: इस काल में व्यापार में कमी आई क्योंकि हमें हर्षवर्धन के द्वारा जारी किए हुए बहुत अधिक सिक्के नहीं मिलते हैं. इस काल में कुछ ही उद्योग उन्नत थे जैसे वस्त्र उद्योग. देश में सूती, ऊनी तथा रेशमी वस्त्र तैयार किया जाता था.

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