मौर्य कला तथा इसके भवन निर्माण कला की मुख्य विशेषताओंको स्पष्ट कीजिये एवं बौद्ध धर्म के साथ उनके संबंध पर भीप्रकाश डालिये।

मौर्य कला तथा इसके भवन निर्माण कला की मुख्य विशेषताओंको स्पष्ट कीजिये एवं बौद्ध धर्म के साथ उनके संबंध पर भीप्रकाश डालिये।

हड़प्पा काल के पश्चात् सर्वप्रथम मौर्यकाल में कला एवं स्थापत्य का स्वरूप स्पष्टतः प्रकट होता है। हालांकि, मौर्यकाल से पूर्व भी विभिन्न प्रकार की कला का प्रचलन था. परंतु कलात्मक वस्तुओं के (i निर्माण में लकड़ी, मिट्टी की ईंटों तथा घास-फूस आदि का प्रयोग किया गया। अतः वे वस्तुएँ आज हमें प्राप्त नहीं होती हैं। मौर्यकाल में कला के क्षेत्र में पाषाण का प्रयोग किया गया. फलस्वरूप कलाकृतियाँ चिरस्थायी हो गई, जिनके साक्ष्य आज भी प्राप्त होते हैं।
दरबारी या राजकीय कला

राजप्रासाद

मौर्यकालीन स्थापत्य की प्रथम कृति राजधानी पाटलिपुत्र में अवस्थित चंद्रगुप्त मौर्य का राजप्रासाद तथा उसका दुर्गीकरण है, जिसकी चर्चा कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' एवं मेगस्थनीज की 'इंडिका' में है। पाटलिपुत्र गंगा एवं सोन नदियों के संगम पर स्थित था। इसके चारों ओर 700 फीट चौड़ी खाई का उल्लेख मिलता है। इस नगर को लकड़ी की दीवार से घेरा गया था। मेगस्थनीज के अनुसार, “पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य का महल समकालीन 'सूसा' साम्राज्य के प्रासाद को भी मात देता है।” मौर्य काल के विशाल नगरों के काष्ठनिर्मित होने का मुख्य कारण गंगा के मैदान के करीब पाषाण का अभाव तथा काष्ठ की अधिकता थी। वर्तमान में 80 स्तंभयुक्त चंद्रगुप्त मौर्य के महल का पुरातात्त्विक अवशेष पटना
के ‘कुम्हरार' नामक जगह पर प्राप्त हुआ है। अशोक का समय आते-आते मौर्यकला के अनेकों स्मारक एवं स्तंभ प्राप्त होने लगे। अतः तत्कालीन समय में कलाकृतियों को मुख्यतः चार भागों में बाँटा जा सकता है-

(i) स्तंभ

(iii) वेदिका

(ii) स्तूप

(iv) गुहा-विहार

(i) स्तंभ

मौर्य काल के सर्वोत्कृष्ट नमूने अशोक के एकाश्म स्तंभ हैं, जो कि उसने धम्म प्रचार के लिये देश के विभिन्न भागों में स्थापित किये थे। इनकी संख्या लगभग 20 है और ये चुनार (वाराणसी के निकट) के लाल बलुआ पत्थर से बने हुए हैं। इन स्तंभों पर एक खास तरह की पॉलिश की गई है, जिसे 'ओप' कहते हैं। इससे इनकी चमक धातु जैसी हो गई, किंतु पॉलिश की यह कला समय के साथ लुप्त हो गई। इन स्तंभों की ऊँचाई 35 से 50 फुट तक तथा वज़न 50 टन तक है। ये एक ही शिला को काटकर बनाए गए हैं, जिसमें कोई जोड़ नहीं है। ये स्तंभ आधार की तरफ मोटे तथा ऊपर की तरफ क्रमश: पतले होते गए हैं। स्तंभ के मुख्य भाग को 'लाट' कहते हैं और ऊपरी हिस्से को 'शीर्ष'। शीर्ष का मुख्य भाग है 'घंटा'। भारतीय विद्वान इसे अवांगमुखी कमल कहते हैं। उसके ऊपर चौकीनुमा स्वरूप बनाकर उस पर पशुओं की आकृति बनाई जाती थी।

मौर्यकालीन महत्त्वपूर्ण स्तंभ

• लौरिया नंदनगढ़ का स्तंभ: यह अब तक प्राप्त सभी स्तंभों में सर्वाधिक सुंदर स्तंभ है। इसके शीर्ष पर सिंह की प्रतिमा है, आसन के चारों तरफ हंस की पंक्ति उत्कीर्ण है।

• रामपुरवा के स्तंभ: लौरिया नंदनगढ़ के समीप रामपुरवा में भी अशोक के शिला स्तंभ, पशु प्रतिमा और स्तंभ से संयुक्त शीर्ष भाग उपलब्ध हुए। अशोक के समय में निर्मित धम्म स्तंभों पर धम्म की शिक्षाएँ उत्कीर्ण की गई हैं।

• दिल्ली का टोपरा स्तंभ: यह फिरोज़शाह की लाट के नाम से प्रसिद्ध है। पहले यह स्तंभ दिल्ली से 90 मील दूर अंबाला जिले में यमुना के किनारे टोपरा में था। फिरोजशाह तुगलक द्वारा इसे दिल्ली लाया गया।

• दिल्ली में मेरठ स्तंभ: इसे भी फिरोज़शाह तुगलक द्वारा मेरठ से दिल्ली लाया गया था। 1713-1719 ई. में बादशाह फर्रुखसियर के बारूदखाने में आग लग जाने के कारण यह स्तंभ गिरकर ध्वस्त हो गया था, किंतु बाद में इसी ध्वस्त स्तंभ को पुनः प्रतिष्ठित किया गया।
• लौरिया अरेराज स्तंभ: बिहार के चंपारण जिले में राधिया ग्राम

से 2.5 मील दूर दक्षिण-पूर्व में अरराज महादेव का मंदिर है। उसी के निकट लौरिया में यह स्तंभ खड़ा है। इस पर अशोक के लेख उत्कीर्ण हैं। • इलाहाबाद स्तंभ: इस पर अशोक के दो लेख उत्कीर्ण हैं, साथ

ही इस पर समुद्रगुप्त की प्रशस्ति भी खुदी हुई है। • रूम्मिनदेई स्तंभ: नेपाल के रुम्मिनदेई नामक स्थान पर अशोक का एक प्राचीन स्तंभ मिला है और इस पर लिखा है, "यहाँ भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था।" इस प्रकार बुद्ध के जन्म स्थान के निर्णय में यह अभिलेख महत्त्वपूर्ण है। रुम्मिनदेई स्तंभ के उत्तर-पश्चिम में 13 मील दूर निग्लीवा झील के समीप निग्लीवा ग्राम में यह स्तंभ खड़ा है। इस पर उत्कीर्ण लेख में अशोक द्वारा कनकमुनि बुद्ध के स्तूप की मरम्मत कराने का संकेत मिलता है।

(ii) स्तूप

महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् उनके शरीर के अवशेषों को आठ भागों में बाँटा गया तथा उन्हीं अवशेषों पर समाधियों का निर्माण किया गया, जिन्हें स्तूप कहा जाता है बौद्ध परंपरा के अनुसार सम्राट अशोक ने 84 हज़ार स्तूपों का निर्माण करवाया था, इनमें बिहार के वैशाली, गया इत्यादि स्थल भी शामिल हैं। (iii) वेदिका

सामान्यतः मौर्यकालीन विहार एवं स्तूप वेदिकाओं से घिरे होते थे। उदाहरणस्वरूप, बिहार के बोधगया में अशोककालीन वेदिकाओं के अवशेष मिले हैं। इसके अलावा पाटलिपुत्र से खुदाई के क्रम में तीन वेदिकाओं के टुकड़े मिले हैं, जो चमकीली पॉलिश के कारण मौर्यकालीन कला की विशेषता प्रस्तुत करते हैं।

(iv) गुहा-बिहार

मौर्ययुगीन कला का यह सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इनके अंतर्गत पर्वतों को काटकर गुफाएँ बनाई जाती थीं। सम्राट अशोक एवं उसके पौत्र दशरथ ने बौद्ध आजीवकों के रहने के लिये इनका निर्माण करवाया था, जैसे गया जिले में तीन गुफाएँ नागार्जुनी पहाड़ियों में और चार गुफाएँ बराबर पहाड़ियों में पत्थरों को काटकर बनाई गई हैं।

लोककला

मौर्यकाल में लोकरुचि की वस्तुओं के निर्माण हेतु कलाकारों ने दरबार से बाहर वस्तुओं का निर्माण किया, जैसे-

• पटना में दीदारगंज से प्राप्त यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमा • लोहानीपुर (पटना) से प्राप्त दो नग्न पुरुषों की मूर्तियाँ, जिनका निर्माण जैन शैली में कायोत्सर्ग मुद्रा में हुआ है।

• कुम्हरार से विभिन्न पशु-पक्षी तथा नर-नारियों की मृण्मूर्तियाँ मिली हैं।

मौर्यकला / स्थापत्य और बौद्ध धर्म संबंध

ई.पू. दूसरी शताब्दी तक हमें बुद्ध की प्रतिमाओं या आकृतियों के दर्शन नहीं होते। बुद्ध को प्रतीकों जैसे कि पदचिह्नों, स्तूपों, कमलसिंहासन.चक्र आदि के रूप में ही दर्शाया गया है। यह दर्शाता है कि इस समय तक पूजा-आराधना की पद्धति सरल थी और कभी-कभी उनके जीवन की घटनाओं को चित्रात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता था। जातक कथा या बुद्ध के जीवन की किसी घटना का वर्णन बौद्ध परंपरा का अभिन्न अंग बन गया था। जातक कथाएँ स्तूपों के परिक्रमा पथों और तोरण द्वार पर चित्रित की गई हैं। बुद्ध के जीवन से संबंधित अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं, जैसे- जन्म, गृहत्याग, ज्ञान-प्राप्ति, धर्मचक्र प्रवर्तन, महापरिनिर्वाण, जिन्हें मौर्यकला/स्थापत्य के माध्यम से दर्शाया गया है। फु

निष्कर्ष

उपर्युक्त कला और विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मौर्य साम्राज्य भवन-निर्माण कला में समृद्धशाली रहा है और बौद्ध धर्म से उनका अन्योन्याश्रय संबंध रहा है।

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