ब्रिटिश शासन में सामाजिक अधिनियम

ब्रिटिश शासन में सामाजिक अधिनियम
ब्रिटिश शासन में सामाजिक अधिनियम


ब्रिटिश शासन में सामाजिक अधिनियम
19वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिशों की नीतियों ने हालाँकि तत्कालीन सामाजिक समाज में व्याप्त बुराइयों के उन्मूलन में सहयोग दिया लेकिन धीरे-धीरे भारत की सामाजिक-धार्मिक बुनावट को कमजोर करने का कार्य भी किया क्योकि वे मुख्यतः अंग्रेजी सोच व समझ पर आधारित थीं|

प्राच्यवाद के व्याख्याताओं ने कहा कि भारतीय समाज को आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण की आवश्यकता है|उन्हें अनेक विचारधाराओं की तीव्र आलोचना का सामना करना पड़ा|विलियम विल्बरफोर्स व चार्ल्स ग्रांट जैसे व्यक्तियों के अनुसार ‘भारतीय समाज अंधविश्वासों,मूर्ति पूजा व पुजारियों की तानाशाही से भरा पड़ा है|’
उन्होंने भारत का आधुनिकीकरण ईसाई मिशनरियों के माध्यम से करना चाहा | ब्रिटिशों ने भारत के सामाजिक व्यवहारों में अनेक परिवर्तन किये| ब्रिटिशों ने महिलाओं की स्थिति को सुधारने और अनेक सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाये-

बालिका भ्रूण हत्या:
यह प्रथा उच्च वर्ग के बंगालियों व राजपूतों, जोकि महिलाओं को आर्थिक बोझ मानते थे, में बहुत प्रचलित थी| अतः भारतीय समाज की सोच में सुधार लाने के क्रम में 1795 व 1804 के बंगाल रेगुलेशन एक्ट ने बालिका शिशु की हत्या को अवैध घोषित किया और 1870 में बालिका शिशु हत्या पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए एक अधिनियम भी पारित किया गया था| इस अधिनियम के द्वारा माता-पिता द्वारा सभी बच्चों के जन्म का पंजीकरण कराना अनिवार्य बना दिया गया और बालिका शिशु के सन्दर्भ में जन्म के बाद के कुछ वर्षों तक भी निगरानी रखने की व्यवस्था थी| इसे वैसे क्षेत्रों में विशेष रूप से लागू किया गया जहाँ यह प्रथा अधिक प्रचलन में थी|

सती प्रथा की समाप्ति: 
यह राजा राममोहन राय के प्रयासों से प्रभावित था| ब्रिटिश सरकार ने सती प्रथा या विधवा स्त्री को जिन्दा जलाने की प्रथा को समाप्त करने का निर्णय लिया और इसे आपराधिक हत्या घोषित कर दिया|1829 का सती प्रथा उन्मूलन कानून पहले बंगाल तक सीमित था लेकिन 1830 में उसे कुछ संसोधनों के साथ मद्रास व बम्बई प्रेसिडेसियों में भी लागू कर दिया गया|

दास प्रथा का उन्मूलन: 
यह एक अन्य कुप्रथा थी जो ब्रिटिशों की नजर में आई और उन्होंने 1833 के चार्टर अधिनियम द्वारा भारत में दास प्रथा को समाप्त कर दिया तथा 1843 के पांचवे एक्ट द्वारा इस प्रथा को क़ानूनी रूप से समाप्त कर दिया गया और गैर-क़ानूनी घोषित किया गया|

विधवा पुनर्विवाह:
ब्रहम समाज ने इसे सर्वाधिक महत्व प्रदान किया और लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया| विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए अनेक महिला कॉलेज,विश्वविद्यालय ,संगठनों की स्थापना की गयी और वैदिक युग से विधवा पुनर्विवाह के पक्ष में प्रमाण जुटाए गए |

बाल विवाह पर रोक: 
1872 का नेटिव मैरिज एक्ट (सिविल मैरिज एक्ट) इसे रोकने के उद्देश्य से ही लाया गया था लेकिन वह अधिक प्रभावी नहीं रहा क्योकि वह हिन्दू,मुस्लिम व अन्य कई धर्मों पर लागू नहीं होता था|1891 ई. में बी.एम.मालाबारी के प्रयासों से एज ऑफ़ कंसेंट एक्ट पारित किया गया और 12 वर्षा से कम उम्र की लड़की के विवाह पर रोक लगा दी गयी| अंततः स्वतंत्रता के बाद बाल विवाह निरोध (संशोधन) अधिनियम द्वारा इसमें बदलाव किया गया और विवाह की आयु लड़की के लिए 18 वर्ष व लड़के के लिए 21 वर्ष निर्धारित की गयी|

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