पबना विद्रोह 1873-76 (Pabna Peasant Revolt in Hindi)

पबना विद्रोह 1873-76 (Pabna Peasant Revolt in Hindi)
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बंगाल के पबना नामक जगह में भी किसानों ने जमींदारी शोषणों के विरुद्ध विद्रोह किया था. पबना राजशाही राज की जमींदारी के अन्दर था और यह वर्धमान राज के बाद सबसे बड़ी जमींदारी थी. उस जमींदारी के संस्थापक राजा कामदेव राय थे. पबना विद्रोह (Pabna Revolt) जितना अधिक जमींदारों के खिलाफ था उतना सूदखोरों और महाजनों के विरुद्ध नहीं था. आपने मोपला विद्रोह और संथाल विद्रोह के विषय में पढ़ा ही होगा, ये भी किसान विद्रोह ही थे. 1870-80 के दशक के पूर्वी बंगाल (अभी का बांग्लादेश) के किसानों ने जमींदारों द्वारा बढ़ाए गए मनमाने करों के विरोध में विद्रोहस्वरूप रोष प्रकट किया. आइए जानते हैं कि इस विद्रोह के बारे में, इस विद्रोह के leaders कौन थे और इस विद्रोह के परिणाम के बारे में.

पबना विद्रोह
पबना आर्थिक दृष्टि से एक समृद्ध इलाका था. 1859 में कई किसानों को भूमि पर स्वामित्व का अधिकार दिया गया था. किसानों को मिले इस अधिकार के अंतर्गत किसानों को उनकी जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता था. लगान की वृद्धि पर भी रोक लगाई गई थी. कुल मिलाकर किसानों के लिए पबना में एक सकारात्मक माहौल था. पर कालांतर में जमींदारों का दबदबा पबना में बढ़ने लगा. जमींदार मनमाने ढंग से लगान बढ़ाने लगे. अन्य तरीकों से भी जमींदारों द्वारा किसानों को प्रताड़ित किया जाने लगा.

अंततः 1873 ई. में पबना के किसानों ने जमींदारों के शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाने की ठानी और किसानों का एक संघ बनाया. किसानों की सभाएँ आयोजित की गयीं. कुछ किसानों (peasants) ने अपने परगनों को जमींदारी नियंत्रण से मुक्त घोषित कर दिया और स्थानीय सरकार बनाने की चेष्टा की. उन्होंने एक सेना भी बनायी जिससे कि जमींदारों के लठियलों का सामना किया जा सके. जमींदारों से न्यायिक रूप से लड़ने के लिए धन चंदे के रूप में जमा किया गया. किसानों ने लगान (rent) देना कुछ समय के लिए बंद कर दिया. यह आन्दोलन धीरे-धीरे सुदूर क्षेत्रों में भी, जैसे ढाका, मैमनसिंह, त्रिपुरा, राजशाही, फरीदपुर, राजशाही फैलने लगा.

परिणाम
पबना विद्रोह एक शांत प्रकृति का आन्दोलन था. किसान शांतिपूर्ण तरीके से अपने हितों की सुरक्षा की माँग कर रहे थे. उनका आन्दोलन सरकार के विरुद्ध भी नहीं था इसलिए पबना आन्दोलन को अप्रत्यक्ष रूप से सरकार का समर्थन प्राप्त हुआ. 1873 ई. बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर कैंपवेल ने किसान संगठनों को उचित ठहराया. पर बंगाल के जमींदारों ने इस आन्दोलन को साम्प्रदायिक रंग देना चाहा. एक अखबार Hindoo Patriot ने प्रकाशित किया कि यह आन्दोलन मुसलमान किसानों द्वारा हिन्दू जमींदारों के विरुद्ध शुरू की गई है. पर कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इस आन्दोलन को साम्प्रदायिक रंग देना इसलिए गलत है क्योंकि पबना विद्रोह (Pabna Revolt) में हिन्दू और मुसलमान दोनों वर्ग के किसान शामिल थे. आन्दोलन के नेता (leaders) भी दोनों समुदाय के लोग थे, जैसे ईशान चन्द्र राय, शम्भु पाल और खुदी मल्लाह. इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप 1885 का बंगाल काश्तकारी कानून (Bengal Tenancy Act) पारित हुआ जिसमें किसानों को कुछ राहत पहुँचाने की व्यवस्था की गई.

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